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XXX / सरकार्य
गया था ।
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aft के विषय में कुछ ठीक से समझ लेना चाहिए। जैन परम्परा में मूल पाँच वर्ण बताये गये हैं और और वर्णक्रम में सात रंग हैं। उसमें यह बताया है कि श्वेत रंग अपने में कोई रंग नहीं है, वह तो सातों रंग के मिश्रण का परिणाम है। इस पर काफी खोज हुई और मॉप्टीकल सोसायटी ऑफ अमेरिका ने इस बात पर अपना मन्तव्य व्यक्त किया'उनका कहना है कि जैन परम्परा में जिस कलर की बात कही जा रही है वह उसकी मूल प्रापर्टी से जुड़कर कही जा रही है। जिसका सम्बन्ध हमारी रेटिना से है। सोलर स्पेक्ट्रम में दिखने वाले रंग उन मूल रंगों की प्रतिछवि हैं। बी. एन. श्रीवास्तव और मेघनाद साहा ने अपनी एक पुस्तक में यह निष्कर्ष दिया है कि 'वस्तुतः किसी प्रदार्थ के मूलगुणों में पॉच कलर हो होते हैं, जो जैनदर्शन से मेल खाते हैं। यह विषय सभी लोगों तक पहुँचना चाहिए।'
जीवनमूल्य
जीवन मूल्य के स्वरूप को जान लेना आवश्यक है। जीवन मूल्य क्या है ? कुछ लोग इसे हीं नहीं समझ पाते । जीवन मूल्य वह है जो जीवन को कल्याण की ओर प्रेरित करे, जो जीवन की सम्पदा की अभिवृद्धि करे । प्रायः हम सामाजिक मूल्य और जीवन मूल्यों को एक समान मान लेते हैं। जीवन मूल्य केबल जीवन तत्त्व से जुडा हुआ होता है और सामाजिक मूल्य सगठन से, समूह से जुड़ा होता है।
तत्त्वार्थसूत्र के सन्दर्भ मे जीवनमूल्य परक दृष्टि पर यदि ध्यान केन्द्रित करें तो हमारा ध्यान उन उदात्त जीवन मूल्यों पर जाना चाहिये जिनका सम्बन्ध केवल व्यक्ति से है, समष्टि से नहीं। जैसे -
'मैत्री - प्रमोद - कारुण्य- माध्यस्थ्यानि च सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनेयेषु ।'
ये उदात्त जीवनमूल्य है - मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यमस्थ्य की भावना । उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, सयम, तप, त्याग आदि अपनी चेतना का उत्कर्ष कर सकते हैं।
'अनित्याशरणसंसारकत्वान्यत्वाशुच्यासवसंवरनिर्जरालोकबोधिदुर्लभधर्मस्वास्यातत्त्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षा:'
इन सूत्रो की व्याख्यायें तथा इसी तरह अहिंसा आदि व्रतों की उनसे सम्बद्ध सूत्रों की व्याख्याये की जा सकती । इनको आत्मसात् करके ही जीवन के कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर सकेंगे । यद्यपि जीवन मूल्य पर बहुत कुछ लिखा गया है, परन्तु तत्त्वार्थसूत्र के सन्दर्भ में उसे हाइलाईट किया जाना चाहिए।
भारतीय कानून एवं जैनधर्म
भारतीय कानून के मूलस्रोत को केवल एक सूत्र के द्वारा बताया गया है। भारतीय दण्ड विधान और धर्मसंहिता में मौलिक अन्तर है। वस्तुत: दण्ड विधान ऊपर से आरोपित होता है जबकि धर्मसंहिता स्व- अनुशासित और अन्तप्रेरित होती है । अन्तःप्रेरणा से जो भी कार्य होता वह मौलिक होता है। जबकि बाहर से आरोपित मौलिक नहीं हो सकता ।
एक बात और है, कानून केवल अपराधों की सजा देता है, जबकि धर्म पाप को रोकने की बात करता है। दण्डविधान में जितने भी कानून हैं वे सिद्ध अपराध के लिये सजा देते हैं। शारीरिक अपराध या वाचिक अपराध तो प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं और इनकी व्यवस्था या रोकने के लिये सारे कानून हैं। लेकिन जो अपराध हमारा मन करता है, उसको रोकने के लिये दुनिया में कानून की कोई धारा नहीं है। उस मानसिक पाप को रोकने या नियंत्रित करने के लिये तस्वार्थसून