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________________ तत्वार्थमन्न-निका / xxV माध्यात्मिक उत्क्रान्ति करें। तभी कल्याण के पथ पर चल सकेंगे। सम्यग्दर्शन से भूमिका बनी रत्नत्रय की और इसकी परिपूर्णता दशवे अध्याय मे मोक्ष पर जाकर सम्पन्न हुई। इसके विषय में जितना कहा जाये उतना कम है क्योंकि प्रत्येक सूत्र का मूल प्रतिपाद्य तो प्रकारान्तर से रत्नत्रय ही है। फिर भी इनके बीजों का अन्वेषण अभी और करने की जरूरत है। यह भी देखा जा सकता है कि किन-किन सूत्रों से सीधा रत्नत्रय का सम्बन्ध है? यद्यपि आचार्य उमास्वामी ने सम्यग्दर्शन का जिस तरह से स्पष्ट उल्लेख किया है, उसी तरह सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र शब्द का उल्लेख प्रथम सूत्र के अलावा नहीं पाया जाता है। लेकिन ऐसे अनेक सूत्र हैं जिनमें इन सबकी सूचनामें हमें उपलब्ध होती हैं। मायावतयों की मानिकता जैनदर्शन की अनेक प्राचीन निष्पत्तियाँ हैं जिन्हे एक लम्बे समय तक विज्ञान एव वैज्ञानिक अस्वीकारते रहे हैं। अन्तत: उन्हें भी हारकर स्वीकार करना पड़ा। विज्ञान प्रयोगो के आधार पर चलता है और उसकी निष्पत्तियाँ तात्कालिक होती हैं। एक वैज्ञानिक जो निष्कर्ष देता है, दूसरा वैज्ञानिक उसे आगे बढ़ाता है, समयानुरूप उसमे परिवर्तन भी करता है। जैसे परमाणुवाद को लें। डाल्टन के परमाणुवाद के बाद न्यूटन और आइस्टीन और उसके बाद एडिक्टन आदि ने परमाणुवाद के सम्बन्ध में जो अवधारणायें दी वे बदलती रहीं। इस प्रकार विज्ञान की अवधारणाएं बदलती है, लेकिन धर्म की अवधारणायें सार्वकालिक और सार्वभौमिक होती हैं। उनका सिद्धान्त कभी परिवर्तित नही होता । भगवान् महावीर ने परमाण का जो सिद्धान्त बताया वह आज तक चल रहा है क्योंकि विज्ञान प्रयोगो के आधार पर बात करता है और धर्म अनुभव के आधार पर बताया है। तीर्थंकरों को उनके केवलज्ञान में जो प्रत्यक्ष हआ वह उन्होने अपनी देशना मे कहा है और हमारे आचार्यों ने निबद्ध किया । जैन आचार्यों की भौतिक और रासायनिक विज्ञान की दिशा में कितनी ऊँची दिशा थी। एक समय तक मैटर और एनर्जी को अलग-अलग माना जाता था। जैनदर्शन मे इस पर काफी विमर्श हआ है और वह इन दोनों को एक ही वस्तु के दो रूप मानता है। पर वैज्ञानिक लम्बे समय तक इस मान्यता से सहमत नही थे। मैटर यानि पुदगल और एनर्जी यानि ऊर्जा । आधुनिक विज्ञान ने अब इसे स्वीकार कर लिया है। तत्त्वार्थसूत्र में एक सूत्र है - शब्दबन्ध-सौक्मस्थीत्य-संस्थान-भेदतमरछायातपोद्योतवन्तश्च' जिसका निष्कर्ष है कि शब्द, बन्ध, छाया, उद्योत यानि प्रकाश, अन्धकार आदि सब पुद्गल की परिणतियाँ है। भगवान महावीर की इस उदघोषणा को आचार्य उमास्वामी ने 2000 वर्ष पहले निबद्ध कर दिया था, जिसे आज वैज्ञानिको ने स्वीकारा है। एक बडी विचित्रता है जो बात वैज्ञानिक मानते है उसे तो हम जल्दी मान लेते हैं, परन्त जो वीतराग विज्ञान के माता कहते हैं वह हमारी समझ में नहीं आती। प्रायः ऐसा होता है कि हम विज्ञान की बात करते है तो केवल पदार्थ विज्ञान की तरफ सोचने लगते हैं। जबकि विज्ञान का अर्थ है विशिष्ट ज्ञान । पदार्थ की ओर जब हमारा ज्ञान जाता है तब वह पदार्थविज्ञान बन जाता है और जब परमार्थ की तरफ जाता है तब वह अध्यात्म विज्ञान बन जाता है। जैनदर्शन में जो कुछ लिखा है वह अध्यात्मविज्ञान की बात है । इसके अन्तर्गत परमाणु से लेकर अन्यान्य चीजों के बारे में बहुत सी बातें लिखी गई हैं। उन रहस्यों को जब आप देखेंगे तो खुद रोमांचित हो उठेगे । तत्त्वार्थसूत्र का पांचवा मध्यावन मेटाफिजिक्स का विवरण देता है। उसके एक-एक सूत्र पर काफी गम्भीरता से विचार किया जा सकता फिरोजाबाद की विगत संगोष्ठी में पौदगलिक स्कन्धों का रासायनिक विश्लेषण' शीर्षक से बहत अच्छा प्रकाश डाला
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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