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seasaram
को कहीं भी अलग से परिगणित नहीं किया। पर मेरी जो धारणा है वह यह है कि द्रव्ववेद में पुरुषवेद को शुभ माना जाता है और शेष दो वेदों को अशुभ। इनका सम्बन्ध शुभ-अशुभ नामकर्म से है। शुभनामकर्म शुभ परिणामों में और अशुमनार : अशुभ परिणामों से बंधता है, इसलिये यदि हम पुरुषवेद के साथ शभभावों का सन्निकर्ष विशालकर द्रव्यवेद और मा के कारणों में ऐक्य स्थापित करने का प्रयल करे तो इसमें कोई असंगत बात नहीं होगी। क्योंकि आगम में मह लिखा है.. 'पायेण समा कहि विसमा वेदों में प्रायः समानता होती है।
द्रव्यवेद की जब चर्चा करते हैं तो शारीरिक आकृति से सम्बन्ध होता है और भाववेद का मतलब भीतर का वासनात्मक दृष्टिकोण है। ये दोनों प्रायः समान होते हैं । कदाचित् अपवाद में अन्सर हो सकता है। ...
आचार्य वीरसेन स्वामी ने इसके प्रशस्त और अप्रशस्त वेद का उल्लेख किया है, जबकि अयधवला में इसका स्पष्ट उल्लेख है कि घातिया कर्म पापकर्म हैं, लेकिन फिर भी वेदकर्म में प्रशस्त और अप्रशस्त का भेद बताया है। पुरुषवेद के बन्ध का जो कारण बताया है वह भी शुभ कर्म है।
____ एक प्रश्न उठता है कि - क्या संज्वलन के मन्दोदय में ही पुरुषवेद का बन्ध होता है ? सभी प्रकृतियों के बन्ध के लिये अलग-अलग कारण निरूपित किये गये हैं और उन सबके साथ अन्वय-व्यतिरेक भी स्थापित किया गया है। निचली कषायें जहाँ होती हैं वहाँ ऊपरी कषायें भी होती हैं, पर हर कषाय अपना-अपना ही काम करती है। पुरुषवेद का अन्वयव्यतिरेक संज्वलन के ही साथ है, इसलिये जो बात कही गई है वह शत-प्रतिशत सही है। मनोविज्ञान के विषय में
जैनदर्शन में मनोविज्ञान जैनकर्म सिद्धान्त का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। इसके लिये तत्त्वार्थसूत्र के छठवें और आठवें अध्याय में विवेचित किया गया है । आठवें अध्याय में मोहनीयकर्म के परिवार से इन्हें जोड़ा जाता है। किन्तु इसे मैं अच्छा नहीं मानता । विदेशी लेखकों को ही उद्धृत करते जाये और यह न बताया जाये कि आज से 2000 वर्ष पूर्व आचार्य उमास्वामी ने क्या कहा तो ठीक नहीं। अपितु तुलनात्मक दृष्टि से उसका भी विवेचन किया जाना चाहिए । यहाँ समरम्भसमारम्भ-आरम्भ की बात के साथ ही 'तीव्र-मन्दज्ञातानात-भावाधिकरणवीर्य-विशेषेभ्यस्तविशेष:' की बात भी जुड़ना चाहिये।
कर्म के संस्कार आत्मा से किस तरह से जुड़ते हैं, दूषित प्रवृत्तियों का मन पर क्या असर पड़ता है ? इन बातों को भी रेखांकित किया जाना चाहिये । मनोविज्ञान में निरूपित जो 14 मूलप्रवृत्तियाँ हैं, वे मोहनीयकर्म के 28 के परिवार में पूरी तरह फिट हो जाती हैं। जितने भी मानसिक विकार हैं वे सब मोह की संतान हैं और इन विकारों के संशोधन के लिये जो उपाय बताये गये हैं उनके प्रति भी हमें दृष्टि देना चाहिये । इसके साथ-साथ तप:साधना, व्रताराधना, परिवहजय, अनुप्रेक्षा और ध्यान आदि की मनोविकारों के संशोधन में क्या उपयोगिता है? इस तरफ भी ध्यान दिया जाना चाहिये।
जैन साधना पद्धति क्या दमनकारी है अथवा यह मन की शुद्धि के साथ आत्मा के शोधन की प्रक्रिया है ? इस बात को भी हमें ठीक से समझना जरूरी होगा। अन्यथा प्राय: लोग जैन साधना की कठोरता को देखकर इसे एक दमनकारी प्रवृत्ति कह देते हैं, हमें उनकी इस प्रान्त धारणा का निरसन भी करना चाहिये। .. ... व्यक्तित्व के विकास में जो बाधक कारण हैं उनसे हमें बचना ही चाहिये । हमें अब व्यक्ति से व्यक्तित्व बनने की बात सोचना चाहिये और यह तभी सम्भव होगा जब हम उदात्त जीवन मूल्यों को आत्मसात् कर अपने जीवन में