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________________ तेरा तुझको सौपिया, क्या राखा है मोय वर्ष 2004, सम्भवत: मई महिने का अन्तिम सप्ताह था वह । परम पूज्य मुनिराज श्री 108 प्रमाणसागर जी महाराज जबलपुर में विराजमान थे। उनके प्रवचनों की अनुगूंज जबलपुर से लगभग 200 कि. मी दूर सतना में भी सुनाई दे रही थी। सतना से भावुक भक्तों का एक दल विशेष बस लेकर जबलपुर रवाना हुआ। इन लोगों ने रात्रि विश्राम श्री बहोरीबन्द जी क्षेत्र में किया । मैं ट्रेन से सीधे जबलपुर पहुंच गया था। दूसरे दिन मानस भवन में परम पूज्य मुनिश्री का प्रवचन था रामायण पर । श्रोताओं की अपार भीड़, जितने श्रोता हॉल के अन्दर थे, उससे कहीं ज्यादा बाहर खड़े होकर लाइव टेलीकास्ट के माध्यम से प्रवचन सुन रहे थे। प्रवचन के पूर्व ही बाहर से आये श्रावकों को अवसर मिला पूज्य मुनि श्री के चरणों में श्रीफल भेंट करने का । जब सतना का नाम पुकारा गया तो श्री कैलाशचन्द जी सहित श्री निर्मल जी, श्री प्रमोद जी, मैं तथा श्रीमती कैलाशचन्द जी ही सभाकक्ष में खड़े नजर आये। बहोरीबन्द से प्रात: चली बस पनागर के पास जाम लगने के कारण जबलपुर देर से पहुँच सकी थी। हम सभी ने पूज्य मुनि श्री के चरणों में श्रीफल भेंट करते हुये पूज्य गुरुदेव से सतना में चातुर्मास करने का अनुरोध किया। इस बीच श्री कैलाशचन्द जी ने मंच संचालक से कहकर मुझे माइक से बोलने का अवसर प्रदान करा दिया। इतने बड़े जनसमूह के समक्ष बोलने का यह मेरे लिये प्रथम अवसर था। शान्तिनाथ प्रभु को मन ही मन प्रणाम कर मैंने मचासीन मुनिद्वय को नमोऽस्तु करते हुए निवेदन किया कि - हे परम पूज्य गुरुदेव ! 1998 में आपके पग-विहार ने सतना की धरती को पवित्र किया था। आपके उस प्रवास ने सम्पूर्ण नगर को महिमामण्डित किया और जीवन जीने की कला सिखाई थी। 6 वर्षों से हजारों आँखें आपकी प्रतीक्षा में हैं। 'हे पूज्य मुनिवर ! मैं सतना जैन समाज सहित सतना के सम्पूर्ण नागरिकों की ओर से सादर प्रार्थना करता हूँ कि इस वर्ष चातुर्मास काल में सतना नगर को धन्य करने की कृपा करें।' मैंने अपनी बात इन शब्दों के साथ समाप्त की - 'न अल्फाज हम दो शना जानता हूँ न दिलचस्प तर्जे बयाँ जानता है, मेरी बन्दगी है इसी में कि, तुमको खुदा जानता हूँ, खुदा मानता हूँ। उपस्थित हजारों लोगों ने तालियों की गडगडाहट के साथ मेरी बात का समर्थन किया तो मेरे मन में कहीं कुछ लगा कि 'तुझको तेरा प्राप्तव्य प्राप्त होगा।' आहार के उपरान्त पूज्य मुनि श्री जब अपनी वसतिका (डी. एन. जैन कॉलेज) पधारे तो सतना के शेष साथी श्रावक-श्राविकाएँ भी पधार चुके थे। मैंने पूज्य मुनि श्री को सतना जैन मन्दिर की स्थापना और भूलनायक तीर्थंकर श्री
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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