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तत्त्वार्थसूत्र- निकष / 260 विवेक, शत्रुघ्न अबेर वृति के प्रतीक हैं। रावण अहंकार और विभीषण धार्मिक विश्वास के प्रमाण पुरुष हैं। वानरसेना संस्कृति और राक्षस सेना भीतर के कुसंस्कारों के प्रतीक हैं। लक्ष्मण के धर्मचक्र से अहंकार रूपी रावण का संहार होना था, सो हुआ। आज के सन्दर्भ से रामायण को जोड़ते हुए मुनि श्री ने कहा- 'जन-जन रावण घर
लंका इतने राम कहाँ से लाऊँ।' जबलपुर से पधारे राष्ट्रीय कलाकार पं. रुद्रदत्त जी दुबे एवं उनके सहयोगियों ने मंगलाचरण के रूप में आध्यात्मिक भजनों की संगीतमय प्रस्तुति देकर कार्यक्रम को रसमय बना दिया।
सतना की सर्व समाज के सहयोग से भारत विकास परिषद के कार्यकत्ताओं द्वारा विशाल नयनाभिराम मंच का शिल्प गढ़ा गया जो रोज के प्रवचन सन्दर्भों से बदलता रहता था। हजारों की संख्या में पुरुष और मातृशक्ति ने आध्यात्मिक गंगा में लगातार पांच दिन डुबकियाँ लगायी।
समारोह के तीसरे दिवस युवा जागृति रैली का आयोजन हुआ, इसमें नगर की लगभग 50 शिक्षण संस्थाओ के लगभग 15-20 हजार छात्र-छात्राओं एवं युवाओं ने मुनि श्री का प्रेरक सम्बोधन एवं प्रवचन सुना। मुनि श्री से व्यसन मुक्ति का संकल्प लिया। मध्याह्न में 1:30 बजे से नगर के सात विभिन्न स्थानों से छात्र-छात्राओं की टोलियाँ व्यसन मुक्ति से संदर्भित नारे लगाती हुई नदी की लहरों की तरह एक के बाद एक कार्यक्रम स्थल पर आती गयी और पूज्य मुनि श्री के चरणों में अपने को समर्पित करती गयीं। वास्तव में यह दृश्य अत्यन्त प्रेरक और दुर्लभ था । इस सभा को रीवा विश्वविद्यालय के कुलपति महोदय श्री डॉ० ए. डी. एन. वाजपेयी जी ने दीप प्रज्वलित कर उद्घाटित किया और उद्बोधन में कहा कि आध्यात्मिकता के अभाव में सारी समस्याये सुरमा बनकर खडी हो जाती हैं। आज के कार्यक्रम में उत्कृष्ट विद्यालय, सतना की छात्राओं द्वारा राष्ट्रीय गीत एवं मंगलाचरण के रूप में मेरी भावना की सुमधुर प्रस्तुति की गयी।
चौथे दिवस गीता पर आध्यात्मिक रस उद्रेक से प्लावित अत्यन्त प्रभावक प्रवचन 'हुआ जिसे मन्त्रमुग्ध होकर 10 हजार जैनेतर एवं हिन्दू समाज ने सुना। मुनि श्री प्रमाणसागर जी ने कहा- 'जीवन के रूपान्तरण, आत्मा के उन्नयन और अध्यात्म के विकास में जो कहा गया है वह गीता है। इसे कृष्ण ने गाया तो गीता बनी, महावीर माया तो आगम कहलायी, बुद्ध ने गाया तो पिटक बनी और नानक ने गाया तो गुरुग्रन्थ साहब के रूप में हमारे सामने आयी । धर्मक्षेत्र और कुरुक्षेत्र दोनों हमारे भीतर हैं। जब तक भीतर का अर्जुन, गीता को अनसुना करता रहेगा, अंतस् का महाभारत समाप्त नहीं होगा ।'
महाभारत के पात्रों को सटीक प्रतीक देते हुए मुनि श्री ने गीता के आध्यात्मिक नवनीत का प्रसाद भक्तों के अन्तःकरण में उतार दिया। कुंती - बुद्धि की तीक्ष्णता, युधिष्ठिर-समता, भीम-शक्ति, अर्जुन-ज्ञान, नकुल - वैराग्य और सहदेव - साधना में सहायक देववृत्ति के प्रतीक हैं। इन पाँचों का समन्वय ही पाण्डव हैं। धृतराष्ट्र हमारे भीतर, का संज्ञान, गांधारी अजानी आत्मा है जिसने आत्मविस्मृति की पट्टी अपनी आँखों पर बांध ली है । बुद्धि की अपरिपक्व संतान है कर्ण, कपट व छल- पाप बुद्धि में रत शकुनि और दुष्प्रवृत्ति के प्रतीक हैं दुर्योधन ।