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28/सल्याचा-निक चन्द उदय हो तब यदि आत्मपुरुषार्थ में उद्यत हो जाय तो कर्म नाश करके मुक्ति प्राप्त करने का उपाय कर सकता है।
संसारी आत्मा कर्म बन्धन से मुक्त होते ही उसी स्थान से ठीक ऊपर एक समय में लोकान्त में जाकर विराजमान हो जाती है। कुछ जीवों की धारणा है कि सिद्ध भगवान् अर्धचन्द्राकार सिद्धशिला में विराजते हैं और इसी अपेक्षा से वे स्वास्तिक के ऊपर जब अर्धचन्द्राकार बनाते हैं, तो उसमें एक बिन्दु रखते हुए सिद्ध भगवान् की कल्पना करते हैं जबकि शास्त्रानुसार यह धारणा उचित नहीं है। सत्य यह है कि सर्वार्थसिद्धि विमान के ध्वजदण्ड से 12 योजन ऊपर खाली स्थान है उसके बाद आठ योजन मोटी, एक राजू चौडी, सात राजू लम्बी ईषत्प्राग्भार नामक अष्टम पृथ्वी है, जिसमें प्रसननाड़ी के मध्य के ऊपर 45 लाख योजन व्यास वाली, मध्य में आठ योजन और किनारे पर अंगल के असंख्यातवें भाग मोटी, स्फटिकमणि की सिद्धशिला खचित है। लेकिन इस पर सिद्ध भगवान नहीं विराजते । इस शिला के ऊपर दो कोस मोटा घनोवधिवलय है, उसके ऊपर एक कोश मोटा घनवातवलय है और उसके भी ऊपर 1575 धनुष मोटा तनुवातवलय है। (ये सभी कोश और धनुष प्रमाणांगुल की अपेक्षा जानने चाहिए) उस तनुवातवलय के भी अन्त में अर्थात् लोकान्त में सभी जीव विराजते हैं। इनका अवस्थान पूरे 45 लाख योजन विस्तार में और उत्सेधांगुल की अपेक्षा 525 धनुष मोटे सिद्धक्षेत्र में है । अर्थात् तनुवातवलय के 1575 धनुष के 1500 वें भाग में सिद्धभगवान अवस्थित हैं।
___यद्यपि सिद्ध अवस्था की प्राप्ति तो मनुष्य लोक में ही होती है पर कर्ममुक्त होते ही आत्मा ऊर्ध्वगमन स्वभावी होने के कारण सीधा ऊपर गमन करता है । यहाँ ऐसा नहीं समझना चाहिए जैसा कि सोनगढ मे प्रकाशित मोक्षशास्त्र अध्याय 10, सूत्र 8 की टीका में पृ. 631 पर लिखा है 'गमन करने वाले द्रव्यों की उपादान शक्ति ही लोक के अग्रभाग तक गमन करने की है । अर्थात् वास्तव में जीव की अपनी योग्यता ही अलोक में जाने की नही है।' अतएव वह अलोक में नहीं जाता, धर्मास्तिकाय का अभाव तो इसमें निमित्त मात्र है। जबकि वास्तविकता यह है कि जीव की उपादान शक्ति तो ऊर्ध्वगमन स्वभावी होने के कारण ऐसे अनन्त लोकों के पार तक जाने की है परन्तु सहायक निमित्त रूप धर्मास्तिकाय का अभाव होने से वे लोकान्त के ऊपर अलोकाकाश में गमन नहीं करते । जैसे यद्यपि आगे पटरी का अभाव होने से ट्रेन का इंजन आगे गमन नहीं कर पाता है परन्तु इससे उसमें शक्ति का अभाव नहीं कहा जा सकता।' ___अन्य दर्शनों के अनुसार मोक्ष प्राप्त जीवों का निवास स्थान सीमित होता है । वहाँ जब अधिक भीड़ हो जाती है तब जीवों को नीचे संसार में भेजना प्रारम्भ कर दिया जाता है। लेकिन जैनदर्शन में ऐसी मान्यता नहीं है, सभी मुक्तजीव, यद्यपि संसारी अवस्था में कर्म बन्धन से सहित होने के कारण मूर्तिक कहे जाते हैं, परन्तु कर्मबन्धन से रहित होने पर वे अपने स्वभाव को प्राप्त होते हुए स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण से रहित अमूर्तिक हो जाते हैं। अमूर्तिक द्रव्य आपस में टकराते या बाधा को प्राप्त नहीं होते । अत: वे एक में एक समा जाते हैं। इसको किसी कवि ने इस प्रकार लिखा है -
जो एक माहि भनेक राणे, अनेक मांहि एक लों।
कममेक की नाहि संख्या, नमू सिद्ध निरंजनो ।। और इस प्रकार आज वहाँ अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठी, उस सीमित स्थान में विराजमान हैं और भविष्यत् काल के अनन्तानन्त उसी में विराजमान हो जायेंगे, रंचमात्र भी अन्तर पड़ने वाला नहीं है। अन्य दर्शनों में तो मोक्ष प्राप्ति के बाद पन: संसार आगमन की चर्चा है परन्तु जैनदर्शन में अष्टकर्म के बन्ध को संसार का कारण कहा है और कर्मबन्ध से रहित हो जाने पर फिर उस आत्मा का पुनः संसार आगमन या जन्म धारण करना नितान्त संभव नहीं है। वे मुक्त जीव अनन्त