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________________ । लोकवार्मिक खण्ड 7, पृ. 444 में पं. माणिकचंद जी कौदेय जी टीका करते हुए लिखते हैं कि सभी सिद्ध परमेष्ठियों के सिरोभाग अर्थात् उपरिम आत्मप्रदेश अलोकाकाश के अधस्तन प्रदेशों से स्पर्शित है। कोन्देय खो का बयान है कि उपसर्ग द्वारा अन्तकृत केवली बनने वाले केवलियों के आत्मप्रदेश केवलज्ञान होने पर ऐसे आकार को प्राप्त हो जाते हैं, जो उनका शिरोभाग ऊपर हो जाता है। यद्यपि आचार्यों ने निश्चय मोक्षमार्ग को साक्षात् मोक्षमार्ग कहा है परन्तु श्लोकवार्तिककार ने मोक्ष का कारण इस प्रकार बताया है - 'क्षीणकषाये दर्शनचारित्रयोः क्षायिकत्वेऽपि मुक्त्युपादने केवलापेक्षित्वस्य सुप्रसिद्धत्वात्।' (श्लो. वा. प्रथम पुस्तक, पृ. 487) अर्थात् क्षीण कषाय नामक 12 वें गुणस्थान आदि में सम्यक्त्व और चारित्र क्षायिक हो जाने पर भी मुक्ति रूप कार्य की उत्पत्ति करने में केवलज्ञान की अपेक्षा रहती है, यह भली प्रकार प्रसिद्ध है। . यद्यपि यहाँ मुक्ति प्राप्ति में केवलज्ञान कारण है तथापि मनुष्यायु की शेष स्थिति द्वारा उसमें बाधा हो रही है। इसीलिए श्लोकवार्तिककार आगे लिखते हैं - तेनायोगिजिनस्यान्त्यक्षणवर्ति प्रकीर्तितम् । रत्नत्रयमशेषाचविषातकारणं धुवम् ॥ श्लो.वा.प्र.पु.पृ. 489 अर्थ - इसलिए अयोगीजिन के चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समयवर्ती रत्नत्रय को सम्पूर्ण कर्मों का विघात करने वाला कहा गया है। अर्थात् 14 वें गुणस्थान के अन्तिम समयवर्ती रत्नत्रय ही साक्षात् मोक्ष का कारण है। आचार्य पूज्यपाद ने इष्टोपदेश में इस प्रकार कहा है - बध्यते मुच्यते जीवः सममो निर्ममः क्रमात् । तस्मात्सर्वप्रयत्नेन, निर्ममत्व विचिन्तयेत् ।। 26 ।। अर्थ - ममता भाव वाला (रागी) जीव कर्मो को बांधता है और ममता रहित (वीतरागी) जीव मुक्त हो जाता है इसलिए पूरे प्रयत्न के साथ निर्ममता (समता, वीतरागता) भाव का ही चिन्तवन करना चाहिए। आचार्य कुन्दकुन्द ने कर्मों से छूटने का उपाय इस प्रकार कहा है - रत्तो बंधदि कम्म मुच्चदि जीवो विरागसंपत्तो । एसो जिणोबदेसो तम्हा कम्बेसु मा रज्व।। समयसार 150 अर्थ - रागी जीव कर्म बाधता है और वैराग्य को प्राप्त जीव कर्म से छूटता है यह जिनेन्द्र भगवान का उपदेश है, इसलिए कर्मों में राग मत करो। यदि कोई ऐसा प्रश्न करे कि ससारी जीवों को निरन्तर कर्मों का बन्ध और उदय होता रहता है, उसके मोक्ष का उपाय कैसे संभव है ? उसका उत्तर वृहद्रव्यसंग्रह गाथा 37 की टीका में इस प्रकार दिया है - 'जिस प्रकार कोई बुद्धिमान मनुष्य पुरुषार्थ करके शत्रु को नष्ट करता है। उसी प्रकार कर्मों की भी एक रूप अवस्था नहीं रहती है। जब कर्म की स्थिति और अनुभाग हीन होने पर वह लघु और क्षीण होता है तब बुद्धिमान भव्य जीव आममभाषा से पाँच लब्धि रूप और अध्यात्मभाषा से निज़शुद्धात्माभिमुख परिणाम नामक विशेष प्रकार की निर्मल, भावना रूप खड्म से. पुरुषार्थ करके कर्म शत्रु को नष्ट करता है।' अर्थात् कर्म के तीन उदय में आत्मकल्याण रूप पुरुषार्थ संभव नहीं हो पाता परन्तु जब कवाय का
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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