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सूब 10) जिनके द्रव्य व भाव दोनों कर्म नष्ट हो गये हैं वे मुक्त हैं। नयचक्रकार ने भी गाथा 107 में मुक्त जीव का स्वरूप इस प्रकार कहा है
माकम्मसुखा मसरीरातसोक्सणाणडा ।
परमपातं पता जे ते सिवाह खलु मुक्का ।। अर्थ - जिनके अष्ट कर्म नष्ट हो गये हैं, शरीर रहित हो अनन्त सुख व अनन्त ज्ञान में आसीन हैं और परम प्रभुत्व को प्राप्त हैं ऐसे सिद्ध भगवान मुक्त हैं। मुक्त जीवों में 'संसारिणो मुक्ताश्च' इसमें मुक्ता: शब्द के अनुसार दो भेद भी कहे गये हैं - जीवन्मुक्त एवं मुक्त । 13 वें गुणस्थानवर्ती सयोगकेवली को जीवन्मुक्त कहा है। पंचास्तिकाय गाथा 150 की टीका में इस प्रकार लिखा है- 'भावमोक्ष: केवलज्ञानोत्पत्ति: जीवन्मुक्तोऽहत्पदमित्येकार्थः।' अर्थ - भावमोक्ष, केवलज्ञान की उत्पत्ति, जीवन्मुक्त और अर्हन्त पद ये सब एकार्थवाचक हैं । यदि कोई प्रश्न करे कि अर्हन्त परमेष्ठी मुक्त हैं या संसारी तो पंचास्तिकाय के अनुसार हमारा उत्तर होगा कि वे जीवन्मुक्त हैं। लेकिन आचार्य विद्यानन्द महाराज ने श्लोकवार्तिक में उपरोक्त सूत्र की टीका में बड़े रोचक ढंग से लिखा है कि संसारी जीव चार प्रकार के होते हैं - 1. ससारी, 2. नोससारी, 3. असंसारी, 4. सिद्ध । अर्थात् प्रथम से 11 वें गुणस्थान तक के जीव ससारी हैं। क्योंकि उनका अभी बहुत संसार बाकी है। 12 वें गुणस्थान और 13वें गुणस्थानवी जीव को नोससारी अर्थात ईषत्ससारी कहा है क्योंकि वे शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त करेंगे । 14 वें गुणस्थानवर्ती जीव असंसारी हैं क्योंकि वे मोक्ष जाने ही वाले है और सिद्ध तो मोक्ष प्राप्त कर ही चुके
मुक्त जीवों के भाव -
तत्त्वार्थसूत्रकार ने इस सम्बन्ध में दो सूत्र दिये हैं - 'मीपशमिकादिभव्यत्वानां च' 'अन्यत्रकेवलज्ञानदर्शनसिद्धत्वेभ्यः' अर्थात् औपशमिकादि भावों और भव्यत्व भाव के अभाव होने मे मोक्ष होता है । पर केवल सम्यक्त्व, केवलज्ञान और सिद्धत्व भाव का अभाव नहीं होता। इन सूत्रों में भव्यत्व भाव का निर्देश यह बता रहा है कि पारिणामिक भाव का एक भेद जीवत्व भाव यहाँ रह जाता है। और चौथे सूत्र का तात्पर्य है कि यहाँ नौ क्षायिक भाव तथा ममस्त कर्मो के नष्ट होने से सिद्धत्व भाव पाया जाता है। मुक्त जीवकी अवगाहना एवं स्थिति
लोक के अग्रभाग में जो मुक्त जीव विराजमान हैं उनके आत्मप्रदेशों की उत्कृष्ट अवगाहना 525 धनुष से कुछ कम और जघन्य अवगाहना साढे तीन अरनि से कुछ कम होती है। किन्हीं आचार्यों ने मुक्त जीवों की अवगाहना उपरोक्त दोनों प्रमाणों के 2/3 भी स्वीकृत की है। विशेष यह है कि साढे तीन अरत्नी से कम अवगाहना वाले जीवों को मोक्ष नहीं होता, साथ ही जिन जीवों की अवगाहना साढे तीन अरत्नी से लेकर सात अरत्नी से कुछ कम होती है उनका मोक्ष प्राप्ति का आसन खडगासन या कायोत्सर्ग मुद्रा ही कही गई है। इसका कारण यह है कि जितनी जिस जीव की अवगाहना है वह पपासन से बैठने पर आधी अवगाहना वाला हो जाता है और यदि 5 अरलि अवगाहना वाले जीव पद्मासन से मक्ति प्राप्त करें तो उनकी अवगाहना ढाई अरनि रह जायेगी, जो आगम में स्वीकार नहीं की गई है। यह भी ज्ञातव्य है कि आत्मप्रदेशों की अवगाहना को जितना शरीर की अवमाहना से छोटा होना होता है, वह आत्मप्रदेशों की अवगाहना 13 वें गुणस्थान के अन्त समय में ही हो जाती है। क्योंकि आत्मप्रदेशों का संकोच और विस्तार शरीर नामकर्म के उदय से 13वें गुणस्थान के अन्तिम समय तक ही कहा गया है । अत: आत्मप्रदेशों का संकोच या विस्तार 13 वें गुणस्थान के बाद फिर नहीं होता और इसीलिए मुक्त होने के उपरान्त आत्मप्रदेश न तो विस्तरित होते हैं न संकुचित ।