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काल तक टंकोत्कीर्ण परम स्थिरता को प्राप्त होते हुए सिद्धालय में विराजमान रहते हैं; इम
आता ।
श्रीकरावकाचार में आचार्य समन्तभद्रस्वामी लिखते हैं
काले कल्पशतेsपि च गते शिवानां न विक्रियालक्ष्या । उत्पातोsपि यदि स्यात्, त्रिलोकसंधान्तिकरणपटुः ||13311
अर्थ - तीनों लोकों को उलट-पुलट करने में समर्थ कोई महान् उत्पात होने पर भी या सैकड़ों कल्पकालों के बीत जाने पर भी मुक्त जीवों में किसी प्रकार का बिकार (परिवर्तन) संभव नहीं ।
मुक्त जीवों का सुख
कुछ जीवों का ऐसा सोच है कि मोक्ष में क्या सुख मिलता होगा। लगता है कि उन जीवों को मात्र इन्द्रिय सुख का ही ज्ञान है और वे आत्मसुख के ज्ञान से रहित हैं। वास्तविकता यह है कि रागद्वेष परिणामों से सहित होने के कारण संसारी आत्मा सदैव आकुलता सहित होने से दुःखी रहता है, जबकि अष्टकर्म नष्ट होने से निराकुलता को प्राप्त सिद्ध, मुक्त जीव अनन्त सुख का अनन्त काल तक उपभोग करने वाले होते हैं, जैसा कि पचास्तिकाय गाथा 29 में कहा है
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जादो सयं स वेदा सव्वणहू सब्बलोगदरसी य । पप्पेदि सुहमर्णतं अव्वाबाधं सगममुतं ॥ 29 ॥
अर्थ - वह चेतयिता आत्मा सर्वज्ञ और सर्वलोकदर्शी स्वयं होता हुआ स्वकीय, अमूर्त, अव्याबाध, अनन्त सुख को प्राप्त करता है।
रत्नकरण्ड श्रावकाचार मे भी आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने लिखा है -
विद्यादर्शनशक्तिस्वास्थ्यप्रह्रादतृप्तिशुद्धियुजः ।
निरतिशया निरवधयो निःश्रेयसमावसन्ति सुखम् 1113211
अर्थ - उस मोक्ष में रहने वाले सिद्ध भगवान् अनन्त ज्ञान, दर्शन, अनन्त वीर्य, परम उदासीनता, अनन्तसुख, आनन्द, तृप्ति एव परमशुद्धता से सयुक्त रहते हैं, वे हीनाधिक भाव से रहित समान गुणों के धारक हैं और अनन्त काल तक सुखपूर्वक उस मोक्ष में निवास करते हैं। राजवार्तिककार ने सिद्धों का कैसा सुख होता है ? इसका समाधान (अध्याय 10 के अन्त में श्लोक नं. 24-27 ) मे इस प्रकार किया है.
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अर्थ - इस लोक में चार अर्थों में सुख शब्द का प्रयोग होता है- विषय, वेदना का अभाव, कर्मफल, मोक्ष | अग्नि सुखकर है, वायु सुखकारी है इत्यादि में सुख शब्द विषयार्थक है । रोगादि दुःखों के अभाव में पुरुष 'मैं सुखी हूँ' ऐसा समझता है वह वेदनाभाव सुख है। पुण्यकर्म के उदय से जो इन्द्रिय विषयों से सुखानुभूति होती है वह कर्मफल से उत्पन्न सुख है और कर्म और क्लेश के नष्ट होने से प्राप्त अनुपम मोक्ष सुख है।
संसारी जीवों में सबसे ज्यादा सुखो अहमिन्द्रों को कहा जाता है, जिनकी संख्या असंख्यात है। ऐसे असंख्यात अहमिन्द्रों के तथा समस्त संसारी जीवों के प्राप्त सुख से अनन्तानन्त गुणा सुख, मुक्त जीवों को प्रतिसमय प्राप्त होता है। मुक्त जीवों में रंचमात्र ही अस्थिरता नहीं पाई जाती है। इसलिए मन को एकाग्र करने रूप ध्यान का यहाँ नितान्त अभाव पाया जाता है।