SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 279
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तस्यार्थसून शिवाय 223 है क्योकि विशिष्ट सम्यक्त्व स्वरूप परिणामों के द्वारा ही अनन्तानुबन्धी कषायों की विसंयोजना स्वीकार की गई है। इस प्रसंग पर धवला जी की 12 वीं पुस्तक के पृष्ठ 78 गाथा नं. 7-8 तथा सूत्र क्रमांक 175 से 185 अवलोकन करने .4 1 * योग्य हैं। उपसंहार - असंख्यात गुण श्रेणी निर्जरा का अवलोकन करने के पश्चात् दृष्टि में यह बार-बार आता है कि जीव भिन्न-भिन्न स्थानों पर अपनी भूमिका / पात्रता अनुसार हर अगले स्थानो पर पिछले स्थानों की अपेक्षा असख्यात गुणी असंख्यात गुणी निर्जरा करते हैं तो कर्म बांधे कितने थे ? पिछली अनेक पर्यायों में संग्रह के रूप इकट्ठे होते गये ये कर्म तो के समान से जान पड़ते हैं और इतने कर्मों का बोझा लेकर जीव बिना गुणश्रेणी निर्जरा करे ऊ पर आ ही नहीं सकता | बांधते समय तो न होश था न ज्ञान, लेकिन निर्जरा के समय का प्रकरण देखकर आँखें चौधियां जातीं हैं। उसमें भी एक विशेषता है कि अविरत सम्यग्दृष्टि जीव की निर्जरा तो मात्र सम्यक्त्व प्राप्ति के काल में होती है जबकि व्रती श्रावक / मुनिराज की गुणश्रेणी निर्जरा पूरे जीवनकाल में निरन्तर हर पिछले समय की अपेक्षा अगले समयों असख्यात गुणी होती जाती है। अपने जीवन काल में देशव्रती / महाव्रती कितनी निर्जरा कर लेते हैं इसका आकलन अवश्य करना चाहिये । मेरा व्यक्तिगत विचार है कि सभी सुधी पाठक / विद्वान् प्रवचनकार जो अपने विचारों / लेखों / प्रवचनों के माध्यम से जीवों के कल्याणमार्ग को प्रशस्त कर रहे हैं उनसे मेरा अनुरोध है कि हम आस्रव-बंध की चर्चा के साथ संवर की चर्चा भी बहुत करते है किन्तु इसी कड़ी में निर्जरा में असंख्यात गुण श्रेणी निर्जरा की भी चर्चा सामान्य जीवों के बीच में करें सभी जीवों को यह समझ में आये तो लोग अवश्य हो व्रतों की ओर अग्रसर होंगे, व्रती जीवन अगीकार करके श्रेणी निर्जरा के माध्यम से अपने अनन्तों कर्मों के बोझ को वर्तमान पर्याय में बड़े ही सहज ढंग से हलका करने में सक्षम हो सकेंगे। जब तक व्रती जीवन अंगीकार नहीं भी कर सकेंगे तब तक अपने परिणामों द्वारा उस पद को पाने की भावना अपने कर्मों को निरन्तर खिराने की भावना को बलवती बनाते हुये अपने विकास के मार्ग को गति देंगे ऐसा मेरा मानना है । सन्दर्भित ग्रन्थ सूची 1. सर्वार्थसिद्धि - संस्कृत टीका आचार्य पूज्यपाद हिन्दी टीका प. फूलचन्द्र शास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ प्रका. 2. तत्त्वार्थवार्तिक अकलंकदेव, प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली - 3. तत्त्वार्थवृत्ति - भास्करनन्दी टीका अनु. आर्यिका जिनमती, प्रका. पांचूलाल जैन किशनगढ़, 4. तस्त्वार्थवृत्तिः - श्रुतसागरीय टीका, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन 5. जैन तत्त्व विद्या पू. प्रमाणसागर जी, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन - 6. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - संस्कृत टीका, आचार्य विद्यानन्दि, प्रका. गांधी रंगानाथ जैन ग्रंथमाला, मुम्बई 7. तत्त्वार्थसूत्र - पं. फूलचन्द्र शास्त्री, प्रका. 8. तत्त्वार्थसूत्र - पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, प्रका, भारतवर्षीय जैन संघ, चौरासी मथुरा 9. तस्वार्थसूत्र सरलार्थ भागचन्द जैन इन्दु गुलगंज, प्रका. जबलपुर 10. षट्खण्डागम परिशीलन- पं. बालचन्द शास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन 11. षट्खण्डागम धवला पुस्तक 12, प्रकाशन सिताबराय लखमीचन्द विदिशा
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy