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________________ मुक्त जीव एवं मोक्ष का स्वरूप * पं. रतनलाल बैनामा मोक्ष का अर्थ मुक्ति या छुटकारा होता है । अर्थात् अनादिकाल से कर्मबंधन को प्राप्त जीव का, कर्मबंधन से रहित हो जाना मोक्ष है । तत्त्वार्थसूत्रकार ने अध्याय 10, सूत्र 2 में मोक्ष की परिभाषा इस प्रकार की है- बन्धहेत्वभावनिराम्या कृत्स्नकविप्रमोबो मोक्षः । अर्थ - बंध के कारणों का अभाव हो जाने से तथा निर्जरा से सम्पूर्ण कर्मों का आत्यन्तिक क्षय हो जाना ही मोक्ष है। बन्ध के हेतुओं के बारे में आचार्य उमास्वामी महाराज ने स्वयं आठवें अध्याय का प्रथम सूत्र इस प्रकार लिखा है - मिथ्यापर्सनाविरतिप्रमादकपाययोगा बन्धहेतवः । अर्थात् बन्ध के कारणभूत मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग हैं। इन सभी बन्ध के कारणों का और आत्मा के साथ अनादिकाल से जो कर्मपुंज सम्बन्ध को प्राप्त था, उसके सत्त्व, बन्ध, उदय और उदीरणा इन चारों ही दशाओं का, सम्पूर्ण रूप से समाप्त हो जाना मोक्ष है। यदि कोई ऐसा विचारे के दुःख रूपी समुद्र में निमग्न सारे जगत् के प्राणियों को देखने जानने वाले भगवान को कारूण्य भाव उत्पन्न होता होगा तब उससे तो बन्ध होना ही चाहिए ? इसका उत्तर राजवार्तिककार अध्याय 10 सूत्र 4 की टीका में देते हैं कि भक्ति, स्नेह, कृपा और स्पृहा आदि राग विकल्पों का अभाव हो जाने से वीतराग प्रभु के जगत् के प्राणियों को दुःखी और कष्ट में पड़े हुए देखकर करुणा और तत्पूर्वक बन्ध नहीं होता । क्योंकि उनके सर्व आसवों का परिक्षय हो गया है। सर्वार्थसिद्धिकार ने अध्याय । सूत्र 4 की टीका करते हुए बड़ी सक्षेप सी परिभाषा मोक्ष की दी है, यथा - कृत्स्नकर्मविप्रवियोगलक्षणो मोक्षः । अर्थात् सब कर्मो का आत्मा से अलग हो जाना मोक्ष है । इस सूत्र में तीन शब्द बहुत महत्त्वपूर्ण हैं । 'वि', 'प्र' तथा 'मोक्ष' । यहाँ वि से तात्पर्य विशिष्ट रूप से है अर्थात् जो अन्य मनुष्यों में असाधारण हो । प्रसे तात्पर्य प्रकृष्ट रूप से है अर्थात् जो एकदेश क्षय हो जाना नामक निर्जरा, उसका उत्कृष्ट रूप से आत्यन्तिक यानी अनन्तानन्त काल के लिए छूट जाना। मोक्ष शब्द से तात्पर्य है क्षय हो जाना या आत्मा से अलग हो जाना अर्थात जो कार्माण वर्गणाएं कर्म रूप परिणमित होकर आत्मा से सम्बन्ध को प्राप्त हुई थीं उनका निर्जरित होकर पुन: कार्मण वर्गणा रूप हो जाना इसी को यहाँ मोक्ष कहा है । यहाँ पर आत्मा के द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म इन तीनों प्रकार के कर्मों से छूट जाना ही मोक्ष रूप से विवक्षित है। कोई मुनिराज जब क्षपकश्रेणी माड़कर वेसठ प्रकृतियों का क्षय करके अरिहंत परमेष्ठी बनने के उपरान्त चौदहवें गुणस्थान में प्रवेश करते हैं और चौदहवे अयोगकेवली गुणस्थान के उपान्त समय में 72 प्रकृतियों का और अन्तिम समय में शेष बची हुई 12/13 प्रकृतियों का क्षय करते हैं तब ही समस्त कर्मों का क्षय कहा जाता है, इसी * हरीपर्वत, प्रोफेसर कालोनी, आगरा
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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