________________
222/स्वार्थसूत्रमिकव
2. तस्वार्थवृत्ति आचार्य भास्करनन्दि टीका में भी नवमें अध्याय के पेंतालीसवें सूत्र की टीका करते हुये पृष्ट 545546 की संस्कृत टीका में यही भाव प्रदर्शित है। वहाँ निर्जरा के कालों की व्याख्या भी सुन्दर ढंग से की गई है।
3. जैन तत्त्व विद्या ग्रन्थ में जो शास्त्र सार समुच्चय की टीका के रूप में पूज्य प्रमाणसागर जी महाराज द्वारा रचित हैं, 4 ये अध्याय के सूत्र 62 की टीका 352-353 पृष्ठ पर विस्तार से की गई ।
4. तत्वार्थ सूत्र की टीका श्री पं. फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री द्वारा भी इसी मन्तव्य को झलकाया है। देखें पृष्ठ
अध्याय 9 सूत्र 45 पर ।
5. तत्त्वार्थसूत्र टीका पं. कैलाशचन्द्र जी बनारस द्वारा पृष्ठ 151 पर नवमें अध्याय के पेंतालीसवें सूत्र के अर्थ एवं विशेषार्थ में बहुत सरल शब्दों में गुण श्रेणी निर्जरा के दस स्थानों का कथन किया है।
6. तस्वार्थसूत्र सरलार्थ - के नवमें अध्याय सूत्र 45 की टीका पृष्ठ 267-68 पर गुणश्रेणी निर्जरा के दस स्थानों का कथन करते हुये विशेषार्थ में 5 बातों द्वारा कथन को और स्पष्ट करते हुये एक जीव की अपेक्षा से ही कथन किया है।
7. तत्त्वार्थ राजवार्तिक के द्वितीय भाग पृष्ठ 635-636 अध्याय 9 के सूत्र 45 की टीका में अकलकदेव स्वामी ने सम्यग्दृष्टि से तीनों सम्यग्दृष्टि उपशम, क्षयोपशम और क्षायिक ग्रहण किया है। पश्चात् श्रावक को कहकर आगे यथा क्रम से ले लेना ।
8. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में आचार्य विद्यानन्दि महाराज ने भी पृष्ठ की संस्कृत टीका अध्याय 9/45 में सम्यग्दृष्टि से तीनों सम्यग्दृष्टि ग्रहण किया है इससे ऐसा जान पड़ता है कि राजवार्तिककार और श्लोकवार्तिककार भी चौथे और पाँचवें क्रम की निर्जरा पात्रों में वहाँ मुनि वियोजक और मुनि क्षपक है ऐसा कहना चाह रहे हैं। मुनि अवस्था प्राप्त होने के पश्चात् जो अगले क्रम में निर्जरा के जितने अन्य स्थान कहे गये, वे सब मुनि अपेक्षा हैं, ऐसा अभिप्राय जान पडता
है ।
9. षट्खण्डागम पुस्तक 12- सूत्र 178 पृष्ठ 82 पर उक्त विवरण प्राप्त होता है 'उससे अनन्तानुबन्धी की विसयोजना करने वाले की श्रेणी गुणाकार असंख्यात गुणा है । 178 | '
स्वस्थान संयत के उत्कृष्ट गुणश्रेणी गुणाकार की अपेक्षा असंयत सम्यग्दृष्टि, सयतासयत और संयत जीवों में अनन्तानुबन्धी का विसंयोजन करने वाले जीव का जघन्य गुणश्रेणी गुणाकार असंख्यात गुणा अधिक है।
अर्थात् संयत के जो उत्कृष्ट निर्जरा हो रही है उसे अनन्तानुबन्धी वियोजक की जघन्य निर्जरा भी विसयोजना के काल में असंख्यात गुणी है।
शंका- संयम रूप परिणामों की अपेक्षा अनन्तानुबन्धी का विसंयोजन करने वाले असंयत सम्यग्दृष्टि के परिणाम अनन्तगुणा हीन होता है ऐसी अवस्था में उससे असंख्यात गुणी प्रदेश निर्जरा कैसे हो सकती है ?
. समाधान - यह कोई दोष नहीं क्योंकि संयम रूप परिणामों की अपेक्षा अनन्तानुबन्धी कषायों की विसंयोजना में कारणभूत सम्यक्त्व रूप परिणाम अनन्तगुणे उपलब्ध हैं ।
शंका- यदि सम्यक्त्व रूप परिणामों के द्वारा अनन्तानुबन्धी कषायों की विसंयोजना की जाती है तो सभी सम्बदृष्टि जीवों में उसकी विसंयोजना का प्रसंग आता है ?
* "4 1
समाधान - ऐसा पूछने पर उत्तर में कहते हैं कि सब सम्यग्दृष्टियों में उसकी विसंयोजना का प्रसंग नहीं आ सकता