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4. अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करने वाले विसंयोजना के काल में मात्र करते हैं।
5. दर्शनमोहनीय की क्षपणा करने वाले जीव भी जिस समय क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्ति का उपाय करते हैं उस समय अपनी पात्रानुसार निर्जरा करते हैं। उदाहरण के लिये कोई अविरत सम्यग्दृष्टि क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त करने की भूमिका में जिस समय होगा उस भूमिका में 5 वें क्रम में कही गई निर्जरा करेगे, लेकिन सिर्फ क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्ति के काल में, शेष जीवन अव्रती हैं तो नहीं करेंगे।
विशेष विचारणीय बिन्दु - सूत्र 9/45 में जो 10/11 स्थान कहे गये हैं उनमें चौथे नम्बर पर अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करने वाले एवं पाँचवें स्थान पर दर्शन मोहनीय की क्षपणा करने वाले पात्र को लिया गया है। वहाँ प्रश्न होता है ये पात्र कौन से गुणस्थानवर्ती लेवें ? क्या वहाँ पर चौथे गुणस्थानवर्ती-पाँचवें गुणस्थानवर्ती जीव भी हो सकते हैं अथवा मुनि की अपेक्षा से कथन है ? यह विचारणीय है। क्या वहाँ वह अविरत सम्यग्दृष्टि वियोजक एवं अविरतक्षायिक सम्यग्दृष्टि मुनि महाराज की अपेक्षा असंख्यात गुणी निर्जरा करता है। इस सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न ग्रन्थों के सन्दर्भों को हम यहाँ प्रस्तुत करते हैं जिसके द्वारा इस विषय पर प्रकाश पड़ता है। अलग-अलग आचार्यों में से बहुत से आचार्यों का अभिमत एक जैसा है किन्तु धवलाकार का मत भिन्न दिखाई पड़ता है अत: हमें दोनों मत स्वीकार करने योग्य हैं।
धवला जी में बहुत स्पष्ट शका और उसका समाधान करते हुये आचार्य वीरसेन स्वामी ने अनन्तानुबन्धी वियोजक असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासयत और संयत को ग्रहण किया है तथा वहाँ पर अनन्तानुबन्धी वियोजक की विसंयोजना के area में विशुद्धि अनन्तगुणी है। फलस्वरूप वहॉ पर मुनि संगत से भी ज्यादा निर्जरा अनन्तानुबन्धी वियोजक करता है। यद्यपि दर्शनमोहनीय की क्षपणा के सम्बन्ध में खुलासा नहीं किया किन्तु सूत्र क्रम में पात्र क्रम से और पूर्व सूत्र के खुलासा से हम दर्शनमोहनीय की क्षपणा करने वालों की गुणश्रेणी निर्जरा में भी असंयत, सयतासंयत और संयत को ग्रहण कर सकते हैं।
इस सम्बन्ध मे अनेक ग्रन्थ एव धवलाजी का मन्तव्य का अवलोकन संक्षिप्त मे करते हैं।
6. उपशम श्रेणी / क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होकर उपशामक / क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती सभी जीव अन्तर्मुहूर्त तक निरन्तर अपनी पात्रता अनुसार निर्जरा करते हैं, यह जरूर है कि ऊपर-ऊपर की अवस्थाओं में अन्तर्मुहूर्त में पहले की अपेक्षा समय घटता जाता है और गुणश्रेणी निर्जरा असंख्यात गुणित क्रम से बढ़ती जाती है।
7. जिन भगवान जब तक केवलीपने को प्राप्त रहते हैं अपनी अरिहन्त अवस्था में निरन्तर असंख्यात गुणी निर्जरा करते हैं ।
8. समुद्घात केवली भगवान ममुद्घात के समय अरिहन्त अवस्था से भी असंख्यात गुणी निर्जरा करते हैं। अन्य - अन्य ग्रन्थों का मन्तब्य - सर्वार्थसिद्धिकार आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ के नवें अध्याय 45 वें सूत्र की टीका करते हुए 908 वें अनुच्छेद मे 10 पात्रों के अनुसार अपनी बात कही है तथा उसमें आचार्य महाराज ने वे 10 स्थान एक ही जीव के विकास क्रम को लेकर कहे हैं। आचार्य पूज्यपाद जी के मन्तव्य में अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना तथा दर्शनमोहनीय का क्षय करने वाली अवस्था मुनि महाराज के ही लेवें ऐसा दिखाई पड़ता है वहाँ चतुर्थ गुणस्थानवर्ती के लिये भी कहा हो ऐसा नहीं झलकता, क्योंकि 'स एव स एव' कहते हुये प्रारम्भ से दसों स्थानों को कहा । इसलिये जब क्रम में सम्यग्दृष्टि- श्रावक-विरत अनन्तानुबंधी वियोजक- दर्शनमोक्षपक ऐसा क्रम कहा है। जिससे वहाँ मुनि की अपेक्षा से लेवें ऐसा अवभासित होता है। सर्वार्थसिद्धि टोका पृष्ठ 362 संस्कृत टीका- हिन्दी अर्थ एवं पं. फूलबन्द जो शास्वी का विशेषार्थ अवलोकन करने योग्य है।
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