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________________ 220 / तत्वार्थसून-निकव विवरण प्राप्त होता है। षड्खण्डागम परिशीलन पृष्ठ 39 पर भी धवला की 12 वीं पुस्तक के अनुसार 11 स्थान कहे गये हैं। कौन-कौन से जीव कितनी निर्जरा कर सकते हैं -इस बात पर विचार करने के लिये हमें सर्वप्रथम यह जानना होगा कि यह निर्जरा प्रारम्भ कहाँ से होती है ? जब मिथ्यादृष्टि जीव सम्यग्दर्शन प्राप्ति हेतु पाँच लब्धियों में करणलब्धि के परिणाम करता है, उस समय जो तीन करण- अध:करण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण रूप परिणामों के समय आयुकर्म को छोड़कर बाकी 7 कर्मो की बहुत निर्जरा होती है। उस समय उस जीव को सम्यक्त्व के सन्मुख या सातिशय मिथ्यादृष्टि जीव कहते हैं तथा जैसे ही यह जीव सम्यक्त्व प्राप्त करता है तो सम्यक्त्व प्राप्ति के काल में इसकी जो निर्जरा होती है उसे असंख्यात गुणी निर्जरा के प्रथम स्थान के रूप में लिया गया है। सातिशय मिथ्यादृष्टि अवस्था से सम्यक्त्व अवस्था में जो निर्जरा होती है वह पूर्व पूर्व की अपेक्षा असंख्यात गुनी होती है इसलिये इमे पहले पात्र के रूप में स्वीकार किया गया है। पुन: वही जीव जब व्रत स्वीकार कर देशव्रती श्रावक बनता है तो उसे द्वितीय पात्र स्वीकार किया गया है और उसकी निर्जरा अपनी प्रथम अवस्था से असंख्यात गुणी है। वही श्रावक जब महाव्रत स्वीकार करता है मुनि अवस्था को प्राप्त होता है तो श्रावक अवस्था में होने वाली असंख्यातगुणी निर्जरा से भी असख्यातगुणी निर्जरा करता है। वही मुनि महाराज जब अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करते हैं तो उस समय में होने वाली निर्जरा पूर्व अवस्था से असंख्यात गुणी है, वे ही महामुनिराज जब दर्शन मोहनीय की क्षपणा करते हैं तो उस समय होने वाली निर्जरा पूर्व अवस्था से असंख्यात गुणी है, वे ही महामुनिराज उपशम श्रेणी चढ़ते हैं तो श्रेणी में होने वाली निर्जरा उनकी पूर्व स्थिति से असंख्यात गुनी है। पुनः वे ग्यारहवें गुणस्थान को प्राप्त करके उपशामक बनते हैं तो पूर्ववर्ती अवस्था से 11 वे गुणस्थान में होने वाली निर्जरा असंख्यात गुणी है। वे ही मुनिराज जब क्षपक श्रेणी पर चढ़ते हैं तो 11 वें गुणस्थान की अपेक्षा उन्हीं मुनि महाराज की निर्जरा 8 से 10 गुणस्थान में असंख्यात गुनी है। पुनः वे ही महाव्रती 12 वे गुणस्थानवर्ती क्षीणमोह को प्राप्त हो जाते हैं तो उनकी निर्जरा श्रेणी पर आरूढ अवस्था से असंख्यात गुणी है तथा वही मुनिराज जब केवलज्ञान प्राप्त कर अरिहन्त भगवान् हो जाते हैं तो उनकी निर्जरा क्षीणमोह अवस्था से असंख्यातगुणी है, इस प्रकार इन 10 स्थानों पर निर्जरा का क्रम दर्शाया है। जहाँ पर 11 स्थान बताये हैं, वहाँ अरिहन्त भगवान् अवस्था से भी ज्यादा निर्जरा जब वे केवली समुद्घात करते हैं तो केवली अवस्था से भी असंख्यात गुणी निर्जरा करते हैं। यहाँ पर जो उदाहरण लिया गया है वह एक जीव को लेकर है। उसी जीव की अनेक अवस्थाओं के आधार पर लिया गया है। धवला पुस्तक 12 में अधः प्रवृत्त केवलीसंयत और योगनिरोध केवलीसंयत ऐसा लिया है। कौन-कौन से पात्र कब-कब करते हैं इस सम्बन्ध में विचार करते हैं कि पात्रों के अनुसार असंख्यात गुण श्रेणी निर्जरा कितने समय तक होती है। - 1. अविरत सम्यग्दृष्टि - सिर्फ सम्यग्दर्शन प्राप्ति के समय गुण श्रेणी निर्जरा करते हैं तथा किससे असंख्यातगुणी सो आचार्य कहते हैं कि सातिशय मिथ्यादृष्टिपने में जो निर्जरा हो रही थी उससे असंख्यात गुणी करते हैं । अविरत सम्यग्दृष्टि यदि आगे नहीं बढ़ता, व्रतादि स्वीकार नहीं करता तो उसके जीवन में फिर नहीं होती सिर्फ सम्यग्दर्शन प्राप्ति काल में ही होती है। 2. व्रती श्रावक अपनी भूमिका में रहते हुये अविरत सम्यग्दृष्टि अवस्था से असंख्यात गुणी करते हैं । यहाँ विशेषता है कि पाँचवां गुणस्थान जब तक बना रहेगा तब तक निरन्तर असंख्यात गुण श्रेणी निर्जरा करते रहेंगे। 3. मुनि महाराज महाव्रती भी अपने योग्य गुणस्थानों में पूरे समय तक निरन्तर गुण श्रेणी निर्जरा करते हैं ।
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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