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तत्वार्थानिक/219
आप रख लेवें मैं अपना रूपया 12 वर्ष बाद अगले कुभ पर ले लूका और अपना एक रूपया देकर चला गया । समय बीता 12 वर्ष बाद फकीर पुन: हरिद्वार पहुँचा। सेठ के पास गया और पिछले कुंभ की बात याद दिलाई। सेठ ने कहा- ठीक है, अपना हिसाब ले लो। सेठ ने उसे 10-20 रूपये देकर कहा हिसाब हो गया। फकीर तो अड़ गया कहने लगा - सेठ हिसाब में 10-20 कम दे देना, लेकिन हिसाब कर लो - सेठ ने हिसाब जोड़ा तो वह एक रूपया हर 6 माह में दुगुने के अनुसार 24 किस्तों में 1 करोड़ 67 लाख 37 हजार 216 रूपये हो गया। सेठ धबड़ा गया। हम आप भी इतनी राशि सुनकर चौंक गये होंगे। लेकिन नीचे लिखे अनुसार हिसाब देखे
1 रूपये 6 माह में 2, 1 वर्ष मे 4, इसी प्रकार हर 6 माह में दुगुने क्रम से 8-16-32-64-128-512-1024-20484096-8192-16384-32768-65536-1,31,072-2,62,144-5,24,288-10,48,576-20,97,152-41,84,304-83,68,608 एव 24 वी किस्त में 12 वर्ष बाद 1, 67,37,216=00 रूपये हो गये। यह उदाहरण तो दुगुने दुगुने क्रम का है इसी क्रम को यदि हम गुणित क्रम में देखें तो जो राशि पहले समय में एक है वही दूसरे समय मे 4 तीसरे समय में 16 इस क्रम से वृद्धि को प्राप्त होती है यथा 1-1, 2-2, 3-4, 4-16, 5-256, 6-65356, 7-4, 29, 49,67,296 अर्थात् मातवें समय मात्र में यह राशि 1 से बढकर गुणित क्रम में 4 अरब 29 करोड़ 49 लाख 67 हजार दौ सो छियानवे हो गई । आठवे समय में 'गुणा करने पर राशि इतनी है कि हम उसे पढ़ भी नही पायेंगे। 9 अक की संख्या हो जायेगी। इस प्रकार हमने द्विगुणित एवं गुणित क्रम को जाना। इसी बात को असख्यात गुणित क्रम जानने के लिये देखे -
पहले समय मे निर्जीरत कर्म
दूसरे क्रम में अर्थात् दूसरे समय मे असख्यात x असंख्यात चौथे समय मे तीसरे समय की राशि x असख्यात
तीसरे समय मे दूसरे समय की राशि x असख्यात
इस प्रकार प्रतिसमय असख्यात असख्यात गुणी कर्मों की निर्जरा बढ़ती चली जाती है और जीव अपनी पात्रतानुसार पूरे-पूरे जीवन भर अपने अनन्त कर्मों को खिरा देते है। अपने पूर्व असख्यातों जन्मो मे बाँधे हुये कर्मों के बोझ को इस निर्जरा के द्वारा हलका कर लेते है और मोक्षमार्ग प्रशस्त करके मुक्ति को प्राप्त हो जाते है। इससे और भी विशेषतायें है यह सामान्य कथन किया है अन्य विशेषताए आगे आने वाले शीर्षको में स्वयं प्रतिपादित हो जायेंगी। इसलिये उस प्रसंग को यहाँ नहीं लिया है।
असंख्यातगुण श्रेणी निर्जरा कौन कर सकता तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 9 के 45 वें सूत्र में आचार्य उमास्वामी महाराज ने इसको खुलासा किया है। 10 पात्र बतला रहे है यथा - सम्यग्दृष्टिश्रावक विरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्त- मोहक्षपकक्षीणमोहजिना: क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः ॥ 9/45 || जिसका क्रम इस प्रकार है - 1. अविरति सम्यग्दृष्टि चतुर्थगुणस्थानवर्ती, 2. देशव्रती श्रावक पंचमगुणस्थानवर्ती, 3. विरत अर्थात् 6 वें एवं 7 वे गुणस्थानवर्ती मुनि महाराज, 4. अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करने वाले, 5. दर्शनमोह का क्षय करने वाले, 6 . चारित्रमोह का उपशम करने वाले अर्थात् उपशम श्रेणी पर चढ़ने वाले मुनिराज, 7. उपशान्तमोह 11 वे गुणस्थानवर्ती महामुनिराज, 8. मोहनीय की क्षपणा करने वाले क्षपकश्रेणी पर आरूढ, 9. मोहनीय परिवार को नाश कर लिया है ऐसे 12 वे गुणस्थानवर्ती मुनिराज और 10. जिना: अर्थात् अरिहन्त भगवान 13 वें एवं 14 वें गुणस्थानवर्ती । इस प्रकार तत्त्वार्थ सूत्रकार द्वारा उत्तरोत्तर विकसित दस पात्र कहे गये हैं।
विशेष - अन्य - अन्य ग्रन्थों में कहीं || स्थान भी कहे गये हैं। शास्त्रसारसमुच्चय की हिन्दी टोका जैनतत्वविद्या के चौथे अध्याय सूत्र 62 में 11 वाँ स्थान केवली समुद्धात लिया गया है, उस समय पूर्ववर्ती स्थिति से अधिक निर्जरा है ऐसा