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एकान्त स्थान पर नवयौवन, मदविभ्रम और मदिरापान से प्रमत्त हुई स्वियों द्वारा बाधा पहुंचाने पर कछए के समान जिसने इन्द्रिय और मनोविकार को रोक लिया है तथा स्त्रियों द्वारा मन्दमुस्कार, कोमलसभाषण, तिरछी नजरों से देखना, हंसना और कामबाण चलाना आदि को जिसने विफलकर दिया है उसके स्त्रीपरीषहजय होता है।
जो प्राणों का वियोग होने पर भी आहार, वसति और औषधि आदि की दीन शब्दों द्वारा अथवा मुख की विवर्णता दिखाकर याचना नहीं करता तथा भिक्षा के समय भी जिसकी मूर्ति बिजली की चमक के समान दुरुपलक्ष्य रहती है ऐसे साधु के याचना परीषहजय जानना चाहिए।
इस प्रकार जो सकल्प के बिना उपस्थित हए परीषहों को सहन करता है और जिमका चित्त मंक्लेश रहित है उसके रागादि परिणामों के अभाव मे आसव का निरोध होने से महान् संवर होता है।
मवर के अन्तिम कारणों में चारित्र कहा गया है, जो मोक्ष का साक्षात् कारण है। चारित्र पाँच प्रकार का है - सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात । सब प्राणियों के प्रति समताभाव रखने और समस्त सावद्य की निवृत्ति को सामायिक कहते हैं। छेदोपस्थापना में चारित्र में लगने वाले दोषों के परिमार्जन की मुख्यता है। प्राणिवध से सर्वथा निवृत्ति को परिहार कहते है। इस युक्त शुद्धि जिस चारित्र में होती है उसे परिहारविशुद्धि कहते हैं । परिहारविशुद्धि चारित्र ऐसे सम्पन्न व्यक्ति के होता है जो तीस वर्ष तक गृहस्थ अवस्था में सुखपूर्वक बिताकर सयत होने पर तीर्थकर के पादमूल की परिचर्या करते हुए आठ वर्ष तक प्रत्याख्यानपूर्व का अध्ययन करता है। वह प्रमादरहित, महाबलशाली कर्मों की महान् निर्जग करने वाला और अति दुष्कर चर्या का अनुष्ठान करने वाला होता है । जिस चारित्र मे
क लोभकषाय अतिसूक्ष्म हो जाता है उसको सक्ष्मसाम्पराय कहते हैं। सक्ष्ममाम्पराय दसवें गणस्थान में होने वाला चारित्र है। समस्त मोहनीय के क्षय से या उपशम से जैसा आत्मा का स्वभाव है, उस अवस्था रूप जो चारित्र होता है वह यथाख्यातचारित्र कहा जाता है । यथाख्यातचारित्र बारहवें, तेरहवे और चौदहवें गुणस्थान में होता है।
संवर के कारणों के विश्लेषण के पश्चात् तप का वर्णन करना प्रसग प्राप्त है। जो तप बाहर से देखने में आता है उसको बाहतप कहते हैं। वे छह प्रकार के हैं - सयम की सिद्धि, राग का उच्छेद, कर्मों का विनाश, ध्यान और आगम की प्राप्ति के लिए अनशन तप किया जाता है । सयम को जाग्रत रखने, दोषों को प्रशम करने, सतोष और स्वाध्याय आदि की सिद्धि के लिए अल्प भोजन लेना अवमौदर्यतप है। भिक्षा के इच्छक मनि का एक घर आदि विषयक नियम आदि लेकर भिक्षा के लिए गमन वृत्तिपरिसंख्यानतप है। इन्द्रियों के दर्प का निग्रह करने के लिए निद्रा पर विजय पाने के लिए और सुखपूर्वक स्वाध्यायादि की सिद्धि के लिए घृत, दुग्ध, शक्कर आदि रसों का त्याग करना रसपरित्याग नामक तप है। एकान्त, शून्यधर आदि में निर्बाध ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय, ध्यान आदि की सिद्धि केलिए मंयत का शय्यासन लगाना विविक्तशय्यासन तप है। आतापनयोग, वृक्ष के मूल में निवास, निरावरण शयन एवं अन्य नाना प्रकार के प्रतिमायोग इत्यादि करना कायक्लेश नामक छठवां तप है। यह तप देहदुःख को सहन करने के लिए इन्द्रिय सख विषयक आमक्ति को कम करने के लिए और प्रवचन की प्रभावना करने के लिए किया जाता है।
अब आभ्यन्तर तप का विवेचन किया जाता है। आभ्यन्तर तप भी छह ही होते है , प्रायश्चित्त, विनय, वैय्यावृत्त, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान । इन तपो से मन का नियमन होता है अत: इनको आभ्यन्तर तप कहते हैं। प्रमादजन्य दोषों का परिहार करना प्रायश्चित्त सप है। पूज्य पुरुषों का आदर करना विनय तप है। मुनियों की सेवा करना वैश्यावृत्त है। मालस्य का त्यागकर शान की आराधना करना स्वाध्याय तप है । अहंकार और ममकार रूप सकल्प का व्यास करना व्युत्सर्ग तप है। चित्त के विक्षेप का त्याग कर उपयोग का केन्द्रित करना ध्यानतप है।