________________
विशुद्ध और श्रद्धा को पुष्ट करता है। संसार परिभ्रमण में अनन्तकाल तो निगोद पर्याय में बीता। निमोद से बाहर जाने पर भी सपर्याय प्राप्त होना दुर्लभ रहता है। प्रसपर्याय में भी अधिक काल तो विकलेन्द्रिय पर्याय में ही बीतता है। पंचेन्द्रियों को भी मनुष्य पर्याय प्राप्त होना अत्यन्त दुर्लभ है। उसमें भी उच्चकुल, निरोगता, इन्द्रियपूर्णता, सत्संगति आदि उत्तरोत्तर दुर्लभ स्थितियाँ प्राप्त होने पर भी तत्त्वज्ञान की भूमिका पूर्वक सोधिलाभ प्राप्त होना महान् दुर्लभ है । इस प्रकार चिन्तन करना बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा है। ऐसा चिन्तन करने से वैराग्यमय बोधिलाभ प्राप्त करने में उत्साह जागृत होता है। जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित अहिंसा एव अपरिग्रह लक्षण वाला धर्म ही मोक्ष प्राप्ति का उपाय है । ऐसा चिन्तन धर्मस्वाक्ष्यातत्वानुप्रेक्षा है। इस प्रकार चिन्तन करने वाला व्यक्ति जीवन में धर्म को धारण करता है। इस प्रकार अनित्यादि अनुप्रेक्षाओं के निरन्तर चिन्तन से उत्तमक्षमादि धारण होते है और परीषहों को जीतने की शक्ति उत्पन्न होती है। अनुप्रेक्षा और परीषहजय से महान् सवर होता है।
सवर-निर्जरा की माधना करने वाले साधक की दृष्टि पलट जाती है। शरीर की सुख सुविधाएँ अब सुख देने वाली प्रतिभासित नहीं होती। बल्कि शारीरिक असुविधाओं के क्षणों में सबर-निर्जरा की अधिक साधना होने से वे मन को भाती है । साधक यदि असुविधाओ मे जीने का अभ्यास करके अपनी आत्मलीनता की वृत्ति को नहीं बढ़ाता है तो असुविधाओं के आने पर वह आत्मा में समता परिणाम बनाए नही रख सकता है। अतएव सवर-निर्जरा के मार्ग से च्युत नहीं होने और निरन्तर होने वाली निर्जरा में वृद्धि प्राप्त करने के लिए साधक परीषहो को सहन करने का अथवा जीत लेने का अवश्य अभ्यास करता है। परीषहो को सहन कर लेना ही तो इस बात का प्रमाण है कि हमारी शरीर से आसक्ति कम हुई है और तत्त्वरुचि अथवा आत्मरुचि उत्पन्न हुई है । परीषह 22 होते हैं - क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दशमशक, नग्नता, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार, पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन । परीषहसहन से सवर होता है। औपक्रमिक कर्मों के फल भोगते हुए मुनिजन निर्जरण कर्म वाले हो जाते हैं और क्रम से मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं। इससे यह फलित होता है कि परीषह सहन से सवर-निर्जरा होती है और अन्त मे मोक्ष प्राप्त होता है। परीषहसहन अथवा परीषहविजय की स्थिति प्राप्त होने पर शारीरिक प्रतिकूलतायें साधक के ज्ञान में आते हुए भी उसके मन उन प्रतिकूलताओं के प्रति अनिष्टता के भाव नहीं आते हैं । कष्ट अथवा पीडा का अनुभव नही होता है। परिणामों में आकुलता नहीं होती, शान्ति और समता का अनुभव होता है। यह स्थिति ही संवर-निर्जरा की साधक स्थिति है। मोक्षार्थी पुरुष शारीरिक कष्टो को समताभाव पूर्वक सहन करता है। जो भिक्षा में भोजन नहीं मिलने पर अथवा अल्पमात्रा में मिलने पर क्षुधा की वेदना को प्राप्त नहीं होता। अकाल में या अदेश में अथवा दाता के अभाव में जिसे भिक्षा लेने की इच्छा नहीं होती, आवश्यकों की थोड़ी भी हानि जो सहन नहीं करता, जो स्वाध्याय और ध्यान भावना में निरन्तर तत्पर रहता है जो प्रायः स्वकृत अथवा परकृत अनशनादि तप करता है, जो नीरस आहार लेता है, क्षुधा वेदना को उत्पन्न करने वाले असातावेदनीय की उदीरणा होने पर भी जो भिक्षालाभ की अपेक्षा उसके अलाभ को अधिक हितकारी मानता है। और क्षुधाजन्य बाधा का अनुभव नहीं करता वही क्षुधापरीषहविजयी होता है। इसी प्रकार जो साधक प्रकृति विरुद्ध आहार, ग्रीष्मकालीन आतप, पित्तज्वर और अनशन आदि के कारण उत्पन्न हुई शरीर और इन्द्रियों का मर्थन करने वाली तीब्रपिपासा का प्रतिकार करने में रुचि नहीं रखता और संतोष एवं समाधि रूप शीतलजल से उसे शान्त करता है वही साधक पिपासापरीषहविजयी होता है। इसी प्रकार शीत, उष्ण, देशमशक आदि की पोडाकारक बाधाओं को जो अपनी आत्मशान्ति के बल पर समतापूर्वक सहन कर लेते हैं और तनिक भी संताप का अनुभव नहीं करते वे महात्मा परीषयी होते हैं। अन्य भी परीवहाँ की जो सहनकर अपने समता परिमाणों से उन पर विजय प्राप्त करते हैं के ही महात्मा परीषहजयी होते हैं और वे ही परीक्षामय से विशेष संवर-निर्जरा की साधना करते हैं। । .५ .