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________________ STATE '' प्रायश्चित्त के नौ भेद हैं । विनय के चार भेद हैं - जानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय और उपचारविनय ।' निर्दोष ग्रन्थ पाना और उसका अर्थ साना वाचना है। संशय मिटाने के लिए प्रस्ता कारमा पृच्छना है । जाने हुए अर्थ का मन में बार-बार अभ्यास करना अनुप्रेक्षा है। उच्चारण की शुद्धिं पूर्वक पाठ को पुन: पुन: दोहरना आम्नाय है और ' धर्म का उपदेश देना धर्मोपदेश है । अपने ज्ञान में प्रकर्षता के लिए, अध्यवसाय को प्रशस्त करने के लिए, परम संवेग के . लिए, तप में वृद्धि के लिए और परिणामों में विशुद्धि प्राप्त करने के लिए स्वाध्याय तप किया जाता है। त्याग करना व्युत्सर्ग है। यह दो प्रकार का है - बाह्य उपधित्याग और अन्तरंग उपधित्याग । आत्मा के साथ एकत्व को प्राप्त नहीं हुए ऐसे धन, धान्य, मकान-जायदाद आदि बाहा उपधि हैं। क्रोधादि कषायभाव आभ्यन्तर उपधि हैं। तथा नियतकाल तक अथवा यावज्जीवन काय से ममत्व का त्याग करना भी आभ्यन्तर उपधि त्याग कहा जाता है। यह व्युत्सर्गतप नि:संगता, निर्भयता और जीविताशा के त्याग के लिए किया जाता है। आभ्यन्तर तपों में मुख्य अन्तिम तप ध्यान है। एक विषय में चित्तवृत्ति (उपयोग) को रोकना ध्यान है। उपयोग चंचल होता है। नाना विषयों का अवलम्बन लेने से उपयोग परिवर्तित होता रहता है। उसे अन्य अशेष विषयों से हटाकर एक विषय पर नियमित करना एकाग्रचिन्तानिरोध कहलाता है, यही ध्यान है । ध्यान के चार भेद हैं - आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल । इनमें से अन्त के दो ध्यान धर्म और शुक्ल मोक्ष के कारण हैं। आर्त और रौद्र ध्यान संसार परिभ्रमण के कारण हैं। अमनोज्ञ अथवा अनिष्ट पदार्थों के प्राप्त होने पर उसके वियोग के लिए चिंता सातत्य का होना प्रथम अनिष्टमंयोगज आर्तध्यान है। मनोज्ञ वस्तु के वियोग होने पर उसकी प्राप्ति के लिए सतत् चिन्ता करना ही दसरा इष्टवियोगज आतध्यान है। वेदना के होने पर उसको दूर करने के लिए तीसरा वेदनाचिन्तन आर्तध्यान है। भोगों की आकांक्षा के लिए आतर हए व्यक्ति के आगामी विषयों की प्राप्ति के लिए संकल्प तथा निरन्तर चिन्ता करना निदान नाम का चौथा आर्तध्यान है । हिंसा, झूठ, चोरी एवं परिग्रह संरक्षण के लिए सतत् चिन्तन करना चार प्रकार का रौद्रध्यान है। इन आर्त और रौद्रध्यान को पुरुषार्थपूर्वक छोडकर मोक्ष के कारणभूत दो ध्यान धर्म और शुक्लध्यान में उपयोग को लगाना चाहिए। संसार शरीर और भोगों से विरक्त होने के लिए या विरक्त होने पर उस भाव को स्थिर बनाए रखने के लिए जो प्रणिधान होता है उसे धर्मध्यान कहते हैं। धर्मध्यान चार प्रकार का है। उपदेश देने वाले का अभाव होने पर सूक्ष्म, अन्तरित और दूरस्थ विषयों के प्रति सर्वज्ञप्रणीत आगम के आधार पर विषय का निर्धारण करना आज्ञाविषय धर्मध्यान है । जगत् के ये मूढप्राणी मिथ्यादर्शन से छूटकर कैसे समीचीन मोक्षमार्ग का परिचय प्राप्त करें, इस प्रकार निरन्तर चिन्तन करना अपायविचय धर्मध्यान है । ज्ञानावरणादि कर्मो के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव निमित्तक फल के अनुभव का निरन्तर चिन्तन करना विपाकविचय धर्मध्यान है । लोक के आकार तथा स्वभाव का निरन्तर चिन्तन करना संस्थानविचय धर्मध्यान है। आज्ञाविचय तत्त्वनिष्ठा में सहायक होता है । अपायविचय संसार-शरीर-भोगों से विरक्ति उत्पन्न करता है। विपाकविचय से कर्मफल और उसके कारणों की विचित्रता का ज्ञान दृढ़ होता है और संस्थानवित्रय से लोक की स्थिति का ज्ञान दृढ होता है। धर्मध्यान के द्वारा ही शुक्लध्यान की सिद्धि होती है। शुक्लध्यान साक्षात् मोक्ष का कारण है। शुक्लध्यान के चार भेद हैं - पृथक्त्ववितर्क, एकत्ववितर्क, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरतक्रिया-निवर्ति । प्रथम दो शुक्लध्यान श्रेणी में होते हैं। अन्तिम दो शुक्लध्यान केवली भगवान के होते हैं। .. . . इस प्रकार संबर-निर्जरा के द्वारा आम्रव-बन्ध की परम्परा धीरे-धीरे कम होता-होती नष्ट हो जाती है और आत्मा पूर्व निर्मल होकर मोक्ष को प्राप्त कर लेती है। यही चेतना के निर्मलीकरण की प्रक्रिया है। ........
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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