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________________ 210/तत्वार्थसून - निकण अर्थ- जैसे वायु संचार के अभाव में सरोवर में लहरें नहीं उठती, उसी प्रकार परिग्रह के त्याग से मन स्थिर होता है। तभी ध्यान संभव है । किन्हीं महानुभावों की यह अवधारणा है कि अन्तरंग में से जब ममत्व आदि परिग्रह निकलेगा तो बाहरी परिग्रह बाद में स्वयं बिना प्रयास के छूट जायेगा। यह विचार समीचीन नहीं, जिनागम से मेल नहीं खाता। अध्यात्म के मूर्धन्यमणि आचार्य अमृतचन्द्र जी ने बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह त्याग का क्रम अथवा साध्य-साधन भाव निम्न प्रकार प्रकट किया इत्वं परिग्रहमपास्थ समस्तमेव, सामान्यतः स्वपरयोगविवेकहेतुम् । अज्ञानमुज्झितमना अधुना विशेषात्, भूयस्तमेव परिहर्तुमर्व प्रवृत्तः ॥ - समयसार कलश अर्थ - इस प्रकार सामान्य रूप से ही निज पर के अज्ञान के कारणभूत समस्त परिग्रह ( बाह्य परिग्रह) को त्याग कर साधु अब अज्ञान (अन्तरंग परिग्रह) को त्यागने हेतु पुनः प्रवृत्त हुआ है। 6. त्रिविध उपयोग (अशुभ, शुभ, शुद्ध) मे ध्यानों की संभावना तत्त्वार्थसूत्रकार ने नवम अध्याय में प्रकट किया है कि आर्त- रौद्र ध्यान संसार के तथा धर्म्य-शुक्लध्यान मोक्ष के कारण हैं। आशय यह है कि पूर्ववर्ती ध्यान हेय हैं तथा परवर्ती 2 ध्यान उपादेय हैं। आचार्य उमास्वामी के गुरु आचार्य कुन्दकुन्द तथा अन्यों ने भी कहा है कि तीव्र कषाय सक्लेश रूप उपयोग अशुभ है, मन्दकषायरूप (अर्हन्तादिक के भक्ति आदिरूप) उपयोग शुभ है तथा कषाय रहित उपयोग शुद्ध है। यहाँ परिणाम, भाव, उपयोग अपेक्षाकृत एकार्थवाची के रूप में ज्ञान दर्शन (चेतना) के पर्याय हैं। आचार्य कुन्दकुन्द भावपाहुड में वर्णित किया है. भावं तिविहपवार सुहासु च सुखमेव णापव्वं । असुई अहरवई सुहधम्मं जिणवरिदेहि ।। 76 ॥ सुर्य सुद्धसहावं अप्पा अप्पम्मि तं च णाबव्वं । इदि जिनवरेहिं भणियं जं सेयं तं समायरह ॥ 77 ॥ - जिनवरदेव ने भाव तीन प्रकार कहा है 1. शुभ, 2. अशुभ और 3. शुद्ध । आर्त्त और रौद्र अशुभ भाव हैं, शुभ भाव धर्मध्यान है। शुद्ध है वह अपना शुद्ध स्वभाव अपने में ही है। उपर्युक्त कथन का तात्पर्य यह है कि धर्मध्यान शुभोपयोग रूप है। उसे तस्वार्थसूत्र में मोक्ष का कारण कहा है अतः श्रेय है उपादेय है। वह परम्परारूप में मोक्षसाधन या शुद्धोपयोग के कारण के रूप में स्वीकृत है । समयसार में वर्णित शुभ-अशुभ की समानता की अपेक्षा न समझकर शुद्धोपयोग प्राप्ति की पात्रता के अभाव में भी शुभ को सर्वथा हेय मानने वालों की, निश्चयैकान्तियों की ध्यान सम्बन्धी मान्यता, कि शुभोपयोग चूंकि विकल्परूप, रागसहित है अतः सर्वथा हेय है, का निरसन होता है। उमास्वामी मे विचय रूप, विकल्परूप धर्म्यध्यान को स्पष्ट रूप से मोक्ष का हेतु माना है। शुद्धोपयोग, शुक्लध्यान, निर्विकल्प अनुभूति, निश्चयध्यान, शुद्धध्यान आदि के लिये शुभोपयोग, धर्मध्यान, सविकल्प अनुभूति, व्यवहारध्यान अनिवार्य साधन है। व्यवहार मोक्षमार्ग भी मोक्षमार्ग के रूप में स्वीकृत है। कहा भी है।
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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