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निश्चयव्यवहाराच्या मोसमागों या स्थितः।
प्रायः सम्यकपर बातीयवस्वा माग:-- तत्त्वार्थसार निश्चय और व्यवहार दो प्रकार मोक्षमार्ग है, निश्चय मोक्षमार्ग साध्य है और व्यवहार मोक्षमार्ग साधन है। यह तो स्पष्ट ही है साधनपूर्वक ही साध्य की संभावना होती है, पहले व्यवहार मोक्षामाल होता है।
वर्तमान में अपने अव्रती के रूप में कथन करने वाले कतिपय व्यक्ति या वर्ग यह घोषणा करते हुए जात होते हैं कि अमुक स्थान पर, अमुक तिथि व समय पर निर्विकल्प शुद्ध आत्मानुभूति हुई । यह मान्यता तत्वार्थसूत्र के आधार पर पूर्णतया कपोलकल्पित एवं मिथ्या सिद्ध होती है। निर्विकल्प अनुभूति तो शुद्धोपयोगवर्ती शुक्लध्यान है जिसको गुप्ति आदि धारक एवं समस्त परिकर्मकर्ता श्रुतकेवली ही करने में समर्थ हैं । इस प्रकार के एकान्त निश्चयाभासी लोग इसी कारण, उनके मत का स्पष्ट रूप से जिसमें खण्डन होता है ऐसे, तत्त्वार्थसूत्र अपरनाम मोक्षशास्त्र का स्वाध्याय, वाचन, पठन-पाठन नहीं करते जबकि दिगम्बर परम्परा के आद्य प्रस्थापक महर्षि कुन्दकुन्द के पट्टशिष्य उमास्वामी महाराज द्वारा प्रणीत यह गागर में सागर को चरितार्थ करने वाला ग्रन्थ तब से लेकर अब तक आचार्यों तथा चतुर्विध संघ का कण्ठहार बना हुआ है। समस्त भारत में यह जैनियों की बाइबिल माना जाता है।
यहाँ यह भी कहना मार्गप्रभावना की दृष्टि से उपयोगी होगा कि एकान्त निश्चयाभासी एव संयम की महत्ता को न मानने वाले लोग यह भी कहते हैं कि चौथे गुणस्थान में शुद्धोपयोग रूप ध्यान है और उसकी काल मर्यादा कम है मुनि से न्यून है । यही मात्र अन्तर है, परिणाम शुद्ध आत्मा की अनुभूति का ही है। जिनागम की दृष्टि से यह मान्यता मिथ्या
___ क्योकि यदि एक-सा परिणाम हो तो निर्जरा भी समान होना चाहिये जबकि आगम से सूर्यप्रकाशसम स्पष्ट है कि सम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणकषाय तक अपेक्षित गुणस्थानों में क्रमश: असख्यातगुणी निर्जरा है अन्तर परिणाम का अवश्य है। ज्ञातव्य है कि चौथे गुणस्थान में कषायों की तीन चौकड़ी का उदय है, मुनि के एक ही मन्द संज्वलन का उदय उस अवस्था में है। तीन चौकड़ी के उदय रूप में उपयोग की शुद्धता, निर्विकल्प अनभति या शद्धध्यान असंभव है। उसके बुद्धिपूर्वक राग का (अशुभ राम का भी) उदय है । हाँ उसके गुणस्थान के आगमकथित स्वरूप को गोम्मटसार आदि के अनुसार मानना इष्ट है।
7. उपर्युक्त प्रकार ध्यान विषयक मान्यताओं का तत्त्वार्थसूत्र के परिप्रेक्ष्य में दिग्दर्शन कराते हुए अपेक्षित यथासंभव समन्वय प्रस्तुत करने का इस आलेख में प्रयास किया गया है, अन्य ग्रन्थों के मान्य रूपों का भी यथास्थान उपयोग किया गया है। तथापि सम्पूर्णतया में संतोषजनक नहीं मानता हूँ। शोधार्थियों के लिये विस्तृत क्षेत्र अवशिष्ट है, उनसे अपेक्षा है कि एतद्विषयक क्षेत्र को गति प्रदान करें। शास्त्र और शास्त्रार्थ दोनों ही गम्भीर समुद्रवत् दुरूह हैं। मेरे इस प्रयास में त्रुटि संभव है विशजन सुधार कर ज्ञान प्रसार में सहायक बनें, यह अपेक्षा है।