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________________ तत्वार्थसून 209 "सकलभूतधारी के अपूर्वकरण गुणस्थान के पूर्व अर्थात् अप्रमत्त गुणस्थानं पर्यन्त धध्यान होता है तथा अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय तथा उपशान्तकषाय इन चार गुणस्थानों में पृथक्त्ववितर्कवीचार नामक प्रथम शुक्लध्यान होता है तथा क्षीणकषाय नामक 12 वे गुणस्थान में (एकत्ववितर्कवीचार) एकत्ववितर्क अवीचार नामक द्वितीय शुक्लध्यान होता है।" वही 9/37 आचार्य अकलंकदेव ने तत्त्वार्थमार्तिक में उल्लिखित किया है- "तत्त्वार्थाधिगमभाष्यसम्मत सूत्रपाठ में धर्म्यध्यान अप्रमत्तसंयत के बताया है पर यह ठीक नहीं है क्योंकि धर्म्यध्यान सम्यग्दर्शनपूर्वक होता है। अतः वह असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और प्रमत्तसंयत के भी होता है। यदि उक्त अवधारण किया जाता है तो इनकी निवृत्ति हो जायेगी ।"9/36 /13 आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने कहा है कि धर्म, शुक्ल दोनों ध्यानों का पात्र विशिष्ट मुनि है । - “तदेतत् सामान्यविशेषनिर्दिष्टं चतुर्विधं धर्म्यं शुक्लं व पूर्वोदितगुप्त्यादि - बहुप्रकारोपायं संसारनिवृत्तये मुनिर्ध्यातुमर्हति कृतपरिकर्मा ।" 9/44 यहाँ धवला टीका की कतिपय पंक्तियाँ भी उल्लेखनीय हैं- "थोवेण णाणेण जदि ज्झाण होदि तो खवगसेडिउवसमसेडीणमप्पा ओग्गधम्मज्झाणं चेव होदि ।" पु. 13 पृ. 65 अर्थात् 'स्तोक ज्ञान मे यदि ध्यान होता है तो वह क्षपक श्रेणी व उपशम श्रेणी के अयोग्य धर्मध्यान ही होता है।' यहाँ श्रेणी के योग्य व अयोग्य दो भेद सिद्ध होते हैं । 4. विषय कषाय स्थिति में मोक्षोपयोगी ध्यान का अभाव - आचार्य उमास्वामी ने कहा है 'परे मोक्षहेतू' (9/ 29 ) । अर्थात् धर्म्य और शुक्ल ध्यान मोक्ष के कारण हैं। अर्थापत्ति से यहाँ प्रकट है कि शेष आर्त-रौद्र संसार के कारण हैं। यह कथन उस मान्यता का निरसन करता है जिसमें विषय-कषाय भोगाकाँक्षा रूप निदानयुक्त गृहस्थ के मोक्षोपयोगी ध्यान की संभावना बताई जावे। एक म्यान में दो तलवारों का समावेश संभव नहीं, पथिक एक साथ दो दिशाओं में गमन नहीं कर सकता। इस विषय में सभी टीकाकार सहमत हैं दुर्ध्यान में सम्यक् ध्यान नहीं भ्रम से अपने को ध्यानी मानना उचित नहीं । 5. परिग्रही के मोक्षोपयोगी ध्यान की असंभवता तत्वार्थसूत्र जी के नवम अध्याय के अनुसार यह प्रकट होता है कि बाह्य तप अन्तरंग तप का कारण है तथा अंतरंग तपों में पूर्व-पूर्व के तप उत्तर-उत्तर तप के साधन प्रतीत होते हैं। तदनुसार ही ध्यान का साक्षात् कारण व्युत्सर्ग तप है। व्युत्सर्ग का लक्षण करते हुए सूत्रकार ने कहा है 'बाह्याभ्यन्तरो - पध्योः ' | अर्थात् 10 प्रकार बाह्य और 14 प्रकार के अन्तरंग परिग्रह के ममत्व सहित परिग्रह का त्याग व्युत्सर्ग है। इससे प्रकट है परिग्रहधारी जो कि मूर्च्छावान् अनिवार्य रूप से होता है, व्यक्ति को ध्यान की सिद्धि नहीं है। ध्याता के लक्षणों में सर्वत्र यही कहा है। गृहस्थ इसका पात्र नहीं है। परिग्रह मन की स्थिरता में नियामक रूप से बाधक है। इस विषय में निश्चयैकान्त के ज्वर से में ग्रसित तथा उसे दूर कर अनेकान्त को स्वीकार करने वाले पं. बनारसीदास जी की निम्न पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं. - जहाँ पवन नहिं संचर, सहाँ न जल कन्सोल । तैसे परिग्रह मनसर हो अडोल ॥ - समयसार नाटक
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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