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श्वेताम्बर किस परम्परा में छपस्थ वीतरागों के धर्मध्यान माना है) । यहाँ हम धवला टीका के मन्तब्य को प्रस्तुत करना उपयोगी समानते हैं। इसमें सर्वार्थसिद्धि व तत्त्वार्थवार्तिक से भिन्न मत प्राप्त होता है।
आचार्य वीरसेन स्वामी पुस्तक सं. 13 में पृष्ठ 74 पर उल्लिखित करते हैं - "धम्मज्माणं सकसायेसु चेव होरिति को जबदे ? बसंजद-सम्माविसिंजदासजवपमत्तसंजद-अप्पमत्तसंजद-अपुव्वसंजद-अणियासंबदसहमसापरायसवयोवसामएस धम्ममाणस्स पवृत्ती होदि ति जिणोवएसायो ।"
अर्थात् चौथे गुणस्थान से लेकर दसवें तक जिनोपदेश के अनुसार धर्मध्यान की प्रवृत्ति होती है। इसी ग्रन्थ में पृ. 65 पर श्रेणी के योग्य व अयोग्य धर्मध्यान इस प्रकार धर्मध्यान के दो रूपों का प्रतिपादन भी किया गया है।
उपर्युक्त दोनों कथनों में सामंजस्य का आधार यह संभावित किया जा सकता है कि वीरसेन स्वामी द्वारा कथित धर्मध्यान (8 से 10 वें तक) को व्यवहार से, उपचार से शुक्लध्यान माना जाय क्योंकि बुद्धिपूर्वक राग का अभाव है अत: किसी अपेक्षा उस मंद उदय प्राप्त अप्रकट राग को गौण कर शुक्लता स्वीकृत की जा सकती है तथा अकषाय अर्थात् उपशान्त कषाय और क्षीणकषाय में कषाय के पूर्णतया उदय का अभाव होने से परमार्थ शुक्लध्यान को स्वीकार किया जा सकता है । शातव्य है कि कषाय के उदय से ही ध्यान की शुक्लता का, स्वच्छता का अभाव होता है।
हम यहाँ पाठकों के लिए उपयोगी समझकर धवला के कतिपय अंशों को उद्धृत करने का लोभ-सवरण नहीं कर पा रहे हैं, प्रस्तुत हैं वे ध्यान सम्बन्धी विभिन्न अंश -'सच्च एदेहि दोहिवि सस्वेहि दोण्णं जमाणाणं भेदाभावादो। किंतु धम्ममाणमेपवत्युम्हि थोषकालावडाइ । कुदो ? सकसायपरिणामस्स गन्महरतहिदपईवस्सेव चिरकालभवहाणामावादो।' पुस्तक 13 पृ. 74
अर्थात् 'इन दोनों प्रकार के स्वरूपों की अपेक्षा इन दोनों ध्यानों में कोई भेद नही है। किन्तु इतनी विशेषता है कि धर्मध्यान एक वस्तु में स्तोक काल तक रहता है क्योंकि कषायसहित परिणाम का गर्भगृह के भीतर स्थित दीपक के समान चिरकाल तक अवस्थान नहीं बन सकता।' यह अवधारणा गवेषणीय है। तत्त्वार्थसूत्र में दोनों (धर्म्य, शक्ल) ध्यानों के स्वरूप में अन्तर दृष्टिगत होता है। धवला में इस बारे में अचिरकाल, चिरकाल तथा दीपशिखाप्रकाश, मणिप्रकाश उदाहरण देते हुए पर्याप्त ऊहापोह किया गया है। सकषाय एवं अकषाय स्वामी के भेद से भेद दर्शाया गया है।
उपशान्तकषाय गुणस्थान में धवला में एकत्ववितर्कअवीचार द्वितीय शुक्लध्यान भी स्वीकार किया गया है। (प. 13, पृ. 81) जबकि सूत्रकार के टीकाकारों ने क्षीणकषाय में ही स्वीकार किया है। इसी प्रकार क्षीणकषाय गणस्थान में सर्वार्थसिद्धि में एकत्ववितर्क कहा है ('क्षीणकषायौ'9/44) परन्तु धवला में उपर्युक्त स्थल पर ही पृथक्त्ववितर्क भी तर्क द्वारा सिद्ध किया है । इस विषय का सम्यक् ऊहापोह आवश्यक है।
उपर्युक्त विषयों में तत्त्वार्थसूत्र के व्याख्याकारों के वक्तव्य यथासंभव अपेक्षित प्रस्तुत किये जाते हैं।
"दिग्विधं चतुर्विधमपि धर्मामप्रमत्तसंयतस्य साक्षात् भवति । अविरतसम्यग्दृष्टिदेशविरतप्रमतसंपतानां तुगीमवृत्या धर्माध्यानं वेवितव्यमिति ।" 9/3 तत्त्वार्थवृत्ति (श्रुतसागरीय)
"ये चारों प्रकार के धर्म्यध्यान अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसयत के होते हैं, परन्तु अप्रमत्तसंयत मुनि के साक्षात धर्म्यध्यान होता है और अविरत, देशसंयत और प्रमत्तसंयत जीवों के गौण वृत्ति से धर्म्यध्यान होता है।"