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________________ 11. अंग, 10 पूर्व तथा दृष्टिबाद नामक बारहवें अंग के परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, चूलिका नामक भेद और जंगवा प्रकीर्णकों का ज्ञानी । अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य रूप में विभक्त सम्पूर्ण श्रुत का ज्ञाता । किन्तु आचार्य भाकरनन्दिने तत्त्वार्थवृत्ति में प्रकट किया है - 'वक्ष्यमाणेषु शुक्लध्यानविकल्पेध्याचे शुक्लध्याने देशतः कान्तो का पूर्णतवेदिनो भवतः - श्रुतकेवलिन इत्यर्थ: 19/37 अर्थात् वक्ष्यमाण शुक्लध्यान के भेदों में से आदि के दो शुक्लध्यान देशतः पूर्वविद् मुनि के पूर्णतः पूर्ववदमुनि के होते हैं। पूर्वविद् का अर्थ श्रुतकेवली है। इन आचार्य के मत मे श्रुतकेवली दो प्रकार के इस प्रसग में विवक्षित हैं- 1. देशश्रुतकेवली, 2. पूर्णश्रुतकेवली । आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने नवम अध्याय के सूत्र सख्या 37 में 'पूर्वविद्' का अर्थ अपनी सर्वार्थसिद्धि टीका में 'श्रुतकेवली' किया है। श्रुतसागरसूरि ने भी तत्त्वार्थवृत्ति मे "परिपूर्णश्रुतज्ञान" शब्द का प्रयोग किया है। पुनश्च उन्होंने सूत्र सख्या 41 की टीका में पात्रता विषयक यह वर्णन किया है। "उमेऽपि परिप्राप्तबुतज्ञाननिडेनारभ्येते इत्यर्थः ।" अर्थात् दोनों ही शुक्लध्यान ' परिप्राप्तश्रुतज्ञाननिष्ठ' के द्वारा आरम्भ किये जाते हैं। यहाँ 'परिप्राप्तश्रुतज्ञाननिष्ठ' का अर्थ श्रुतकेवली से कुछ न कुछ अन्यता लिये ही प्रतीत होता है। यह यथाशक्य गवेषणीय है। किसी भी ग्रन्थ या पद का अर्थ करते समय शब्दार्थ, नयार्थ, मतार्थ, आगमार्थ एव भावार्थ सभी दृष्टियाँ विवक्षित होती है। अपेक्षित आगमार्थ के रूप मे वहाँ षड्खण्डागम की धवला टीका को उद्धृत करना समीचीन होगा - "बोट्स दस - णव पुवहरा पुण धम्मसुक्कझाणाणं दोण्णं पि सामिसमुब- नर्मति भविरोहावो । अर्थात् चौदह, दश और नौ पूर्व के धारी तो धर्म और शुक्ल दोनों ही ध्यानों के स्वामी होते हैं। उपर्युक्त वर्णन से ज्ञात होता है कि प्रकृत विषय मे जो मत भिन्नता भासित होती है, उसका समायोजन आचार्य भास्करनन्दि के कथन में ज्ञात होता है । सम्यग्दृष्टि जीव किसी भी आगमार्थ का निषेध करने का साहस नहीं कर सकता । समायोजन विभिन्न अपेक्षाओं से करने का प्रयत्न अपेक्षित है। 3. गुणस्थानों मे ध्यानो का अस्तित्व - तत्त्वार्थसूत्र के अध्याय 9 के सूत्र 37 की टीका सर्वार्थसिद्धि में आचार्य पूज्यपाद ने कहा है कि - 'तत्र व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिः । इति श्रेण्यारोहणात्प्राग्धर्म्यं श्रेण्योः शुक्लं इति व्याख्यायते ।' अर्थात् व्याख्यान से विशेष ज्ञात होता है इस नियम के अनुसार श्रेणि चढ़ने से पूर्व धर्म्यध्यान होता है और दोनो श्रेणियो मे आदि के दो शुक्लध्यान होते है ऐसा व्याख्यान करना चाहिए। उपर्युक्त से प्रकट है कि सातवें अप्रमत्त गुणस्थान तक धर्मध्यान तथा आठवें से लेकर बारहवें तक शुक्लध्यान होता है । तस्वार्थवार्तिककार आचार्य अकलकदेव ने इसी अध्याय के सूत्र संख्या 36 की वार्तिक स. 14-15 के अन्तर्गत कहा है कि उपशान्त कषाय और क्षीण कषाय में शुक्लध्यान माना जाता है उनमें धर्म्यध्यान नहीं होता। दोनों मानना उचित नहीं है। क्योंकि आगम में श्रेणियों में शुक्लध्यान ही बताया है, धर्मध्यान नहीं। (यह ज्ञात नहीं है कि दिगम्बर या श्रुतकेवलिनस्तदुभयप्रणिधानसामर्थ्यात् । - राजेवार्तिक 9/37 १. धवला पुस्तक 13 पृ. 65 2
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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