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________________ निविषयं मनः" ऐसी मान्यता है, उसका निरसन करते हुए जैनमत की अवधारणा है कि 'ध्यानं एक विवयं मनः" एक विषयभूत मन की परिणति ध्यान है । कहा भी है - विरमणावमा मा बल तयं वितं । सं होड़भाषणाबा अणुपेहा या अहव चिंता ॥ अर्थात् स्थिर अध्यवसान की ध्यान संज्ञा है। जो चलायमान चित्त का होना है वह भावना, अनुप्रेक्षा या अर्थचिन्ता है। सर्वार्थसिद्धि में शिलविक्षेपत्यागो ध्यानम्।' लक्षण किया है। ये सब एकार्थवाची शब्द हैं तथा मूत्रकार के अभिप्रायानुसार ही हैं। यह सातव्य है कि अनित्य आदि अनुप्रेक्षाओं में जब बार-बार चिन्तनधारा चालू रहती है तब वह ज्ञानरूप है पर जब उनमें एकाग्रचिन्ता निरोध होकर चिन्तनधारा केन्द्रित हो जाती है तब वह ध्यान कहलाती है। यहाँ ऊहापोह हेतु अभीक्ष्ण आगम दृष्टा तत्वार्थसूत्रकार का तद्गत निम्न सूत्र उद्धृत करना अप्रासंगिक न होगा। आज्ञापाबविपाकसंस्थानविचचाय ययम् ।' आशय यह है कि आज्ञा, अपाय, विपाक और सस्थान आदि के विचय, विवेक, विचारणा के लिये जो स्मृतिसमन्वाहार - चिन्तनधारा है वह धर्म्यध्यान है। ____ यहाँ यह विचारणीय है पुनः पुन: चालू चिन्तनधारा को तो ज्ञान या अनुप्रेक्षा कहा गया है जो निम्न सूत्र से भी प्रकट है "बनित्याधरणसंसारकत्वान्यत्वाशुभ्यासंवरनिर्जरालोकबोधिदुर्लभधर्मस्वास्यातत्त्वानु - चिन्तनमानुप्रेक्षाः || 9/7 ॥" अर्थ - इन विषयों (बारह भावनाओं) में बार-बार चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है। तबऐसी स्थिति में ध्यान का जो एकाग्रचिन्तानिरोध' लक्षण है, वह धHध्यान के 'स्मृतिसमन्वाहारः' लक्षण से मत, पूर्वापरविरोध सहित प्रतीत होता है। इसका समायोजन गवेषणीय है। कहीं इसका यह तात्पर्य तो नही कि मात्र क्लध्यान, बह भी 'एकत्ववितर्कअवीचार' ही ध्यान की श्रेणी में आ जावे। शेष सभी ध्यान औपचारिक ही ठहरें. जैसे केवलियों के स्वीकृत औपचारिक ध्यान | पृथक्त्ववितर्कवीचार के अन्तर्गत वीचार के (पलटन के) समय (काल) को ध्यान कहना भी प्रश्नचिह्न खड़ा करता है। स. अन्तर्मुहूर्त काल मर्यादा ध्यान के विषय में सर्वमान्य है। ध्यान से च्युत होने की स्थिति में अगर सस्कार बना रहता है तो पुन: उसी ध्यान में आता है। 2. आचार्य उमास्वामी ने शुक्लध्यानों के पात्र साधु की चर्चा करते हुए सूचित किया है, "शुक्ले चाये पूर्वविदः' अर्थात् पूर्वविद् के पृथक्त्ववितर्क-वीचार' एवं एकत्ववितर्कअवीचार ये शुक्लध्यान तथा धर्म्यध्यान भी होते हैं। इस सूत्र की टीका में आचार्य पूज्यपाद तथा भट्टाकलंकदेव दोनों ने ही पूर्वविद् का अर्थ श्रुतकेवली किया है ।' श्रुतकेवली का तात्पर्य १.धवला पुस्तक पृ.64 २. लासूत्र 9/20 ३. तत्वार्थसूम 9/36 ४. लस्वार्थसूत्र 9/37 ५. वक्ष्यमाणेनु शुक्लध्यानविकल्पेषु आये शुक्लध्याने पूर्वविदो भवतः श्रुतकेवलिन इत्यर्थः । - सर्वार्थसिद्धि 9/37, पूर्वविद्विशेषणं
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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