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उदय होता है। आरम्भ के तीन उत्तम संहनन के अन्य का अभाव होने से स्त्रियों को मोक्ष नहीं होता । इस तरह उत्तम संहनन के अभाव में जब ध्यान की ही स्थिति नहीं बन सकती; तंब.मोक्ष की बात हो कहाँपते :
श्वेताम्बर परम्परा के सभाष्य तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में पूर्वोक्त तत्वार्थसूत्र के ध्यान सम्बन्धी परिभाषा वाले एक सूत्र के स्थान पर दो सूत्र हैं 'उत्तमसंहमनस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् ।। 27 ।। तथा मामुहात ।। 28 ।। वस्तुतः सूत्र ग्रन्थ होने से एक ही सूत्र की बात दो सूत्रों में कहना उपयुक्त नहीं लगता। इन दो सूत्रों का अर्थ भाष्य में इस प्रकार है - उत्तम संहननों (आदि के तीन) से युक्त जीव के एकाग्र चिन्ता का जो निरोध होता है उसे ध्यान कहते हैं ।। 27 ।। वह ध्यान अधिक से अधिक एक मुहूर्त तक हो सकता है, इससे अधिक काल तक नहीं हो सकता। क्योकि अधिक काल हो जाने पर दुर्ध्यान हो जाता है ।। 28 ||
वस्तुतः उत्तमसंहनन अर्थात् अतिशय वीर्य से विशिष्ट शारीरिक संघटन वाले आत्मा को जो एक वस्तुनिष्ठ ध्यान होता है, वही प्रशस्त ध्यान है । पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री ने (तत्त्वार्थसूत्र 9/27 पृ. 218) में लिखा है कि जब विचार का विषय एक पदार्थ न होकर नाना पदार्थ होते हैं तब वह विचार ज्ञान कहलाता है और जब वह ज्ञान एक विषय में स्थिर हो जाता है तब उसे ही ध्यान कहते हैं। इसीलिए आचार्य अकलक ने कहा है कि ज्ञान व्यग्र होता है और ध्यान एकाग्र । एकाग्र से तात्पर्य है ध्यान अनेकमुखी न होकर एकमुखी (एक लक्ष्य में स्थिर) रहता है और उस एक मुख में ही संक्रम होता रहता है, क्योंकि ध्यान स्ववृत्ति होता है, इसमें बाह्य चिन्ताओं से पूर्ण निवृत्ति होती है।
सामान्यतः लोग योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' अर्थात् चित्तवृत्ति के निरोध को योग या ध्यान कहते हैं। इसीलिए आचार्य अकलंक देव तत्त्वार्थवार्तिक (9/27/5-22 . 626-7) में लिखते हैं कि- गमन, भोजन, शयन और अध्ययन आदि विविध क्रियाओं में भटकने वाली चित्तवृत्ति का एक क्रिया में रोक देना निरोध है । जिस प्रकार वायु रहित प्रदेश में
रिस्पन्द अर्थात स्थिर रहती है, उसी प्रकार निराकल देश में एक लक्ष्य में बद्धि और शक्ति पर्वक रोकी गई चित्तवृत्ति (चिन्ता या अन्त:करण व्यापार) बिना व्याक्षेप के वहीं स्थिर रहती है। इस निश्चल दीपशिखा के समान निश्चल रूप से अवभासमान ज्ञान ही ध्यान है।
ध्यान शतक (गाथा 2) में चेतना के चल और स्थिर - ये दो भेद करके चल चेतना को चित और स्थिर चेतना को ध्यान कहा है - जं थिरमज्झवसाणं, झाणं जं चलं तयं चित्तं ।। 2 ।। आगे (गाथा सं. 3 में) कहा है कि चित्त अनेक वस्तुओं या विषयों में प्रवृत्त होता रहता है, उसे अन्य वस्तुओं या विषयों से निवृत्तकर एक वस्तु या विषय में प्रवृत्त करना ध्यान है। वस्तुतः हमारा चिन्तन विविध विषयों पर सतत् चलता ही रहता है, पर उसे हम ध्यान नहीं कह सकते, किन्तु यदि वह चिन्तन यहाँ-वहाँ से हटकर जितने समय के लिए एकाग्र या एक विषय पर स्थिर होगा, उसे उतने समय का ध्यान कहा जा सकता है।
तत्त्वार्थसूत्र में ध्यान की परिभाषा में एकाग्र' पद क्यों ग्रहण किया ? इसका समाधान तत्त्वानुशासन में भी इस प्रकार किया है -
एकाग्र ग्रहण बाजा वैवाचविनिवृतये।
व्य दिशानमेव स्मात् मानकाप्रमुच्यते ॥ ७॥ अर्थात् ध्यान एकाग्र एवं ज्ञान व्यग्र अर्थात् विविध मुखों या अवलम्बनों को लिए हुए होता है इसीलिए व्यग्रता की विनिवृत्ति के लिए ध्यान के लक्षण में एकाग्र पद ग्रहण किया। इस तरह ध्यान साधना में मन की चंचलता का निरोध परम आवश्यक है। बिना मन को जीते साधना की कोई भी क्रिया व्यर्थ है, इसीलिए तत्स्वानुशासन में कहा है -