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संचिनाचमनुप्रेक्षा स्वाम्बाबो नित्यमुखतः ।
जबाव मनः माधुरिनिवार्य-परामुखः॥19॥ अर्थात् जो साधक सदा अनुप्रेक्षाओं का अच्छी तरह चिन्तन करता है, स्वाध्याय मे उद्यमी और इन्द्रिय विषयो से प्राय: मुख मोड़े रहता है, वह अवश्य ही मन को जीतता है। इसीलिए आचार्य कुन्दकुन्द रयणसार में कहते है -
अावणमेव मार्ण, पंचेदियणिग्गहवसायं ।। 95॥ अर्थात् जिनागम का अध्ययन अभ्यास, पठन-पाठन और पश्चेन्द्रिय निग्रह ध्यान है।
पं. सुखलाल जी सघवी ने तत्त्वार्थसूत्र (9/28 4 224) के अपने विवेचन मे लिखा है, कि कई लोग श्वासउच्छ्वास रोक रखने को ही ध्यान मानते है तथा अन्य कुछ लोग अ इ आदि मात्राओ से काल की गणना करने को ही ध्यान मानते हैं। परन्तु जैन परम्परा में यह कथन स्वीकार नही किया गया है, क्योंकि यदि सम्पूर्णतया श्वास-उच्छ्वास क्रिया रोक दी जाय तो शरीर ही नहीं टिकेगा। इसीलिए मन्द या मन्दतम श्वास का सचार तो ध्यानावस्था मे रहता ही है। इसी प्रकार जब कोई मात्रा से काल को गिनेगा, तब तो गिनती के काम मे अनेक क्रियाये करने में लग जाने से उसके मन को एकाग्र के स्थान पर व्यग्र ही मानना पडेगा।'
यही कारण है कि दिवस, मास, वर्ष और उससे अधिक समय तक ध्यान टिकने की लोकमान्यता भी जैन परम्परा को ग्राह्य नहीं है। इसका कारण यह है कि लम्बे समय तक ध्यान साधने से इन्द्रियो का उपधात सम्भव है, अत: ध्यान को अन्तर्मुहर्त से अधिक काल तक बढ़ाना कठिन है। एक दिन, एक अहोरात्र अथवा उससे अधिक समय तक ध्यान किया' इस कथन का अभिप्राय इतना ही है कि उतने समय तक ध्यान का प्रवाह चलता रहा। किसी भी एक आलबन का एक बार ध्यान करके पुन: उसी आलम्बन का कुछ रूपान्तर से या दूसरे ही आलम्बन का ध्यान किया जाता है और पुन: इसी प्रकार आगे भी ध्यान किया जाता है तो ध्यान प्रवाह बढ़ जाता है।
तत्त्वार्थसूत्रकार ने ध्यान की पूर्वोक्त परिभाषा के साथ ही ध्यान के भेद-प्रभेद एव ध्यान के फल आदि का जो विवेचन किया है वह सक्षिप्त होते हुए भी अष्टाग परिपूर्ण है । इसीलिए वैदिक परम्परा मे प्रसिद्ध महर्षि पतञ्जलि ने अपने योग-दर्शन में यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि रूप अष्टाङ्ग योग सम्बन्धी मान्यता से हटकर तस्वानुशासनकार ने बिलकुल नये प्रकार के अष्टाग योग बतलाये है -
याता प्यान फलं देवं यस्य या पदा पया।
इत्येतदव बोडळ प्वातुकामेन बोगिना ।। 37 ।। अर्थात । ध्याता - ध्यान करने वाला, 2. ध्यान, 3. ध्यान का फल (निर्जरा एव सवर), 4. ध्येय (ध्यान योग्य पदार्थ) 5. यस्य (जिस पदार्थ का ध्यान करना है),6. यत्र (जहाँ ध्यान करना है),1. यदा (जिस समय ध्यान करना है बहकाल विशेष). ह. यथा (जिस रीति से ध्यान करना है)। तत्त्वार्थसूत्रकार के विवेचन के आधार पर ही रामसेनाचार्य ने इन्हें विवेचना का विषय बनाया।
. भावार्य उमास्वामी ने ध्यान की परिभाषा आदि का मात्र पूर्वोक्त एक सूत्र (9/27) में वर्णन करने के बाद उन्होंने सोधे-आर्स:रो धर्म और शुक्ल ध्यान के ये चार भेद प्रतिपादित किये, जबकि अनेक आचार्यों ने मप्रशस्त तथा प्रशस्त