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198 / तत्वार्थ-निक
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आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में 'तप' के बाह्य और आभ्यन्तर ये दो भेद किये हैं। इनमें अनशन, अवौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यानं, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश- ये छह बाह्य तथा प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान - ये छह आभ्यन्तर - इस प्रकार तप के बारह भेद हैं। तप के बारह भेदों का उल्लेख प्राय: सभी आचार-परक ग्रन्थों में है। इनके क्रम में भले ही थोड़ा अन्तर हो । इनमें भी आभ्यन्तर तप के अन्तर्गत 'ध्यान' अन्तिम तप है। मुझे लगता है आचार्य उमास्वामी ने एक अनिवार्य और सजग प्रहरी के रूप में ध्यान को अन्तिम तप रखा, ताकि इसके द्वारा सभी तपों की परिपूर्णता बनी रह सके। क्योंकि बिना ध्यान के किसी भी तप की साधना अपूर्ण है ।
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'ध्ये चिन्तायाम्' धातु से निष्पन्न ध्यान शब्द का अर्थ है चिन्तन । सामान्यतः एक विषय में चिन्तन (चित्तवृत्ति) का स्थिर करना ध्यान है। आचार्य उमास्वामी ने ध्यान की अपनी परिभाषा में ध्यान का अधिकारी, ध्यान का स्वरूप और ध्यान का समय इन तीन बातों का समावेश करते हुए कहा है- 'उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तमुहूर्तात् ॥' 9 / 27 अर्थात् उत्तमसंहनन वाले का एक विषय मे अन्तःकरण की वृत्ति का स्थापन करना ध्यान है । वह अन्तर्मुहूर्त अर्थात् अधिक से अधिक 48 मिनट पर्यन्त रहता है।
संहनन के छह भेद हैं- वज्रऋषभनाराच, वज्रनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलक एव असप्राप्तामृपाटिका संहनन | संहनन अर्थात् हड्डियों का सचय। पूर्वोक्त सूत्र मे आचार्य उमास्वामी ने सर्वप्रथम ध्यान का अधिकारी कौन ? इस प्रश्न का समाधान करते हुए कहा है कि उत्तम संहननधारी ही ध्यान का अधिकारी है। क्योंकि ध्यान के लिए जितने आन्तरिक (मानसिक) बल की आवश्यकता है, उतने ही शारीरिक बल भी आवश्यक है। इन छह सहननों मे उत्तम कौन ? स्वार्थवार्तिक (9/27/1 ) में कहा है - आद्यं संहननत्रयमुत्तमम् । .... कुतः ? ध्यानादिवृत्तिविशेषहेतुत्वात् ।.... तत्र मोक्षस्य कारणमाचमेकमेव । ध्यानस्य त्रितयमपि |
अर्थात् ध्यानादि की वृत्ति विशेष का कारण होने से आरम्भ के तीन उत्तम सहनन कहे गये हैं। किन्तु इन तीनों मे मोक्ष का कारण प्रथम संहनन होता है, यद्यपि ये तीनों सहनन ध्यान के कारण तो हैं ही। वस्तुतः इतने समय तक उत्तम संहनन वाला ही ध्यान कर सकता है, अन्य नहीं ।
आचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव (41 /6-7) मे इसका समाधान करते हुए कहा है कि प्रथम वज्रऋषभसहनन वाले जीव को शुक्लध्यान कहा है, क्योंकि इस सहनन वाले का ही चित्त ऐसा होता है कि शरीर को छेदने, भेदने, मारने और जलाने पर भी अपने आत्मा को अत्यन्त भिन्न देखता हुआ, चलायमान नहीं होता, न वर्षाकाल आदि के दुःखों से कम्पायमान होता है।
श्वेताम्बर जैन या अन्य परम्पराओं में जहाँ स्त्री को मुक्ति (मोक्ष) का अधिकारी बतलाया है, वे दिगम्बर जैन परम्परा मान्य स्त्री-मुक्ति निषेध सम्बन्धी सिद्धान्त की आलोचना बड़ी बढ़-चढ़कर करते हैं, उन्हें आचार्य कुन्दकुन्द के अष्टपाहुड तथा प्रमेयकमलमार्तण्ड मे आचार्य प्रभाचन्द्र की स्त्रीमुक्ति खण्डन सम्बन्धी सशक्त युक्तियों को तो पढ़ना ही चाहिए, साथ ही उन्हें गोम्मटसार कर्मकाण्ड की वह गाथा अवश्य दृष्टव्य है, जिसमें कहा है -
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अंतिमतियसंदडणसुदओ पुण कम्मभूमिमहिलाणं ।
आदिमतिर्ण त्विति विमेर्हि मिहि ॥ 32 ॥
अर्थात् कर्मभूमि की स्त्रियों में अन्त के तीन अर्थात् अर्धनाराच, कीलित और स्पाटिका - ये तीन संहननों का