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तस्थार्थ-निक- 197
वस्तुतः भ्रमण परम्परा ध्यान योग साधना की मूल भित्ति पर आधारित है। इसका सबसे सबल प्रमाण है जैन तीर्थकरों आदि की ध्यानस्थ मुद्रा । संसार के प्रायः सभी धर्मों के अपने-अपने इष्ट देवताओं की मूर्तियाँ विभिन्न मुद्राओं में देखने को मिलेंगी। यहाँ तक कि विभिन्न भाव-भंगिमाओं से युक्त लेटे, सोते, बैठे, देखते, गुस्साये, हँसते तथा शान्त आदि रूप - मुद्राओं में उनकी मूर्तियाँ देखने को मिलेंगी, किन्तु जैन परम्परा के इष्ट देवता तीर्थंकरों आदि की मूर्तियाँ चाहे पद्मासन मुद्रा में हों या खड्गासन मुद्रा में सभी गहरे ध्यान में डूबी हुई, प्रशान्त मुखमुद्रा, नासाग्र दृष्टि एवं वीतरागता के भाव से ओतप्रोत मिलेगी, इनके अतिरिक्त नहीं। क्योंकि श्रमण संस्कृति का मूल उत्स ही ध्यान योग साधना है । अन्य धर्म-परम्पराओं में भी यदि ध्यान योग साधना के तत्त्व हैं तो वे श्रमण संस्कृति के प्रभाव से हैं।
इस प्रसंग में यह तथ्य भी हमें जान लेना आवश्यक है कि दार्शनिक जगत् में सांख्य योगदर्शन को प्राय: सर्वाधिक प्राचीन दर्शन की मान्यता प्रचलित है। कुछ विद्वानों का यह भी मानना है कि यह दर्शन कभी श्रमण परम्परा से सम्बद्ध रहा है, किन्तु न मालूम यह दर्शन कब श्रमण परम्परा से दूर होकर वैदिक धारा से जुड गया। जबकि आज भी यह दर्शन अनेक मान्यताओं और सिद्धान्तों में वैदिक दर्शन की अपेक्षा श्रमण दर्शन के अधिक नजदीक है। इसकी अनेक चिन्तनधारायें वैदिक दर्शन के बिल्कुल विपरीत हैं। इस दिशा में तथ्यपूर्ण अनुसन्धान आवश्यक है ।
तत्त्वार्थसूत्र और उसमें प्रतिपादित ध्यान विषयक अवधारणायें -
आचार्य उमास्वामी प्रणीत तत्त्वार्थसूत्र जैनधर्म का एक सर्वाङ्ग परिपूर्ण प्रतिनिधि शास्त्र है, जिसे जैनधर्म के सभी सम्प्रदायों को मान्य है । यह सूत्र ग्रन्थ है अतः इसमें तत्त्व का जो भी कथन शब्द में किया गया है, वह सूत्र रूप में अर्थात् सक्षिप्त शैली तथा सारगर्भित - कम से कम शब्दों में किया गया है। ईसा की प्रथम शती के आसपास के आचार्य उमास्वामी ने इसके नवें अध्याय में छह अन्तरग तपों के अन्तर्गत अन्तिम तप के रूप में 'ध्यानतप' का विवेचन सूत्र संख्या 27 से लेकर 44 तक मात्र 18 सूत्रों में ध्यान, उसके भेद-प्रभेद आदि का स्वरूप सहित विवेचन सारगर्भित रूप में किया है । मात्र इस सक्षिप्त विवेचन के आधार पर परवर्ती आचार्यों ने इस ध्यान तप की अनेक विशद व्याख्यायें प्रस्तुत की, तथा अनेक स्वतन्त्र ग्रन्थों का निर्माण किया । तत्त्वार्थसूत्र के प्रमुख व्याख्या साहित्य जैसे सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थवार्तिक, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, अर्थप्रकाशिका तथा बीसवीं शताब्दी के अनेक हिन्दी व्याख्याकारों ने भी 'ध्यान' का विशद विवेचन प्रस्तुत किया।
वस्तुतः ध्यान योग है ही ऐसा प्रायोगिक विषय, जो प्रत्येक व्यक्ति की अपनी क्षमता, अपनी प्रवृत्ति तथा देश, काल, भाव आदि कारकों पर आधारित होने से इसकी विधियों और प्रकारों का निरन्तर विकास होता रहा है। इस दृष्टि से जब तत्त्वार्थसूत्र तथा अन्य प्राचीन प्राकृत आगमों का अध्ययन करते हैं तब इनमें सूत्र रूप में ध्यान योग का प्रतिपादन पाते हैं, जबकि आचार्य शुभचन्द्र के ज्ञानार्णव, आचार्य रामसेन के तत्त्वानुशासन, आचार्य गुणभद्र का आत्मानुशासन तथा आचार्य हरिभद्र एवं आचार्य हेमचन्द्र आदि के अनेक परवर्ती योग विषयक शास्त्रों में ध्यान योग एवं इसकी पद्धतियों आदि का काफी विस्तार और विकास पाते हैं। बीसवीं सदी के अन्तिम दो-तीन दशकों में तेरापंथ जैन श्वेताम्बर परम्परा के गुरुओं द्वारा विकसित 'प्रेक्षा ध्यान' नामक ध्यान पद्धति भी जैन आगमों में ध्यान विषयक बिखरे हुए सूत्रों पर आधारित है। जो भी हो किन्तु जैनधर्म में ध्यान साधना पद्धति का मूल लक्ष्य सांसारिक सुख की प्राप्ति नहीं अपितु आध्यात्मिक विकास करते हुए मोक्ष की प्राप्ति मूल लक्ष्य है। आचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव (3/27-8) में कहा है कि संक्षेप रुचि वालों ने तीन प्रकार का ध्यान माना है। क्योंकि जीव का आशय तीन प्रकार का ही होता है। प्रथम पुण्य रूप शुभ आशय, दूसरा इसका विपक्षी पाप रूप आशन तथा तीसरा शुद्धोपयोग रूप आशय है।