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ध्यान विषयक मान्यताओं का
समायोजन
* डा.फूलचन्द्र जैन 'प्रेमी'
विश्व की चिन्तनधारा में भारतीय चिन्तन का विशिष्ट महत्त्व है, क्योंकि उसका मूल केन्द्र आत्मा है । भारत
न है। यहाँ के ऋषि-मुनियों ने आत्मा के विकास के लिए ध्यान-योग साधना पद्धतियों को विशेष महत्त्व दिया है। जैनचिन्तकों ने आत्मविकास के अन्वेषण करने में ही अपने सारे जीवन का समर्पण किया है। जैन आगमों में आत्मा को शरीर इन्द्रिय एव मन आदि भौतिक पदार्थों से अलग एव स्वतन्त्र माना गया है। राग-द्वेषादि विकारों के कारण हमारी आत्मा ससार में परिभ्रमण करता है । इन विकारो के क्षय के लिए आचार्यों ने अनेक मार्गों की सर्जना की, जिनमें ध्यान (योग) का सर्वाधिक महत्त्व है। तीर्थकर ऋषभदेव जैनेतर साहित्य-पराणों, वेदों में श्रेष्ठतम योगी के रूप में उल्लिखित हैं। तीर्थकर पार्श्वनाथ और महावीर द्वारा प्रतिपादित ध्यान साधना पद्धतियो के बहुत कुछ सूत्र हमें उपलब्ध आगमों में मिलते हैं। इस परम्परा के आचार्यों ने इन ध्यान-योग साधना पद्धतियों का आश्रय लेकर इस विषय पर शताधिक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की, ताकि प्रत्येक मनुष्य उनके ज्ञानामृत का पान करके आत्मकल्याण के मार्ग पर अग्रसर होते रहें।
आचार्य धरसेन, कुन्दकुन्द, शिवार्य, वट्टकेर, उमास्वामी, पूज्यपाद, शुभचन्द्र, गुणभद्र, हरिभद्र, हेमचन्द्र, रामसेन, यशोविजय प्रभृति अनेक आचार्यों ने स्वतन्त्र रूप से योगध्यान विषय अनेक मौलिक ग्रन्थों का प्रणयन करके अध्यात्म प्रथम ध्यान-योग साहित्य की श्रीवृद्धि कर इस पथ पर चलने के इच्छुक साधकों का मार्गदर्शन किया। अनेक आचार्यों की प्राकृत तथा संस्कृत आदि भाषाओं में निबद्ध आत्मानुशासन, ज्ञानार्णव, योगशतक, योगशास्त्र कृतियों काफी लोकप्रिय और प्रसिद्ध हैं, किन्तु आज भी पद्मनन्दिकृत णाणसार, योगीन्द्रकृत ज्ञानांकुश, सोमसेन त्रैविद्यकृत समाधिसार तथा बीसवीं शताब्दी के आचार्य सुधर्मसागर विरचित सुधर्मज्ञानप्रदीप जैसे अनेक ग्रन्थ ऐसे भी हैं, जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होते हुए आज भी अप्रसिद्ध एव गुमनाम हैं।
निवृत्ति प्रधान जैनधर्म में पिछली कुछ शताब्दियों से जैनेतर विभिन्न धर्मो की धार्मिक क्रियाकाण्डों के परस्पर प्रतिस्पर्धाओं के प्रभाव से इन प्रवृत्तियों का ऐसा प्राबल्य बढ़ा कि जैनधर्म भी अछूता न रहा । इसके फलस्वरूप योग, ध्यान, सामायिक, तप आदि आध्यात्मिक ऊँचाई प्रदान करने वाली साधना की ध्यान-योग आदि पद्धतियाँ जीवन में गौण हो गई और धार्मिक क्षेत्रों में बाह्य क्रियाकाण्डों की प्रधानता बढ़ती गई।
इसलिए हमारे आचार्यों-मुनियों आदि ने समय-समय पर स्वयं गहन सयम और ध्यान साधना करके प्रायोगिक रूप में अनुभूत रहस्यों को ग्रन्थों की रचना द्वारा मूर्तरूप प्रदान करते रहे। *प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, जैनदर्शन विभाग, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी,
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