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आचार्य बीरसेन स्वामी ने भी कषाय की कर्मोतादकता के सम्बन्ध में लिखा है, जो दुःख रूप धान्याको पैदा करने वाले कर्म रूपी खेत का कर्षण करते हैं, जोतते हैं, फलवान करते हैं वे क्रोध-मानादिक कवाय हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ के भेद से कषाय के चार भेद हैं। इनमें क्रोध और मान द्वेषरूप हैं तथा माया और लोभ राग-रूप हैं। राम और देष समस्त अनर्थों का मूल है।
.योब-जीव के प्रदेशों में जो परिस्पन्दन/प्रकम्पन या हलन चलन होता है, उसे योग कहते हैं। (योग का प्रसिद्ध अर्थ यम-नियमादि क्रियाएँ हैं, पर वह अर्थ यहाँ अभिप्रेत नहीं है।) जैनदर्शन के अनुसार मन, वचन और काय से होने वाली आत्मा की क्रिया कर्म-परमाणुओं के साथ आत्मा का योग अर्थात् सम्बन्ध कराती है। इसी अर्थ में इसे योग कहा जाता है। यह योग प्रवृत्ति के भेद से तीन प्रकार का है - मनोयोग, वनयोग और काययोग । जीव की कायिक (शरीर) प्रवृत्ति को काययोग तथा वाचनिक और मानसिक प्रवृत्ति को क्रमश: वचन और मनोयोग कहते हैं।
प्रत्ययों के पांच होने का प्रयोजन - आत्मा के गुणों का विकास बताने के लिए जैनदर्शन में चौदह गुणस्थानों का निरूपण किया गया है। उनमें जिन दोषों के दूर होने पर आत्मा की उन्नति मानी गई है, उन्हीं दोषों को यहाँ आसव के हेतु में परिगणित किया गया है। ऊँचे चढ़ते समय पहले मिथ्यात्व जाता है, फिर अबिरति जाती है, तदुपरान्त प्रमाद छूटता है, फिर कषाय और अन्त में योग का सर्वथा निरोध होने पर आत्मा सब कर्मों से मुक्त होकर सिद्ध अवस्था को प्राप्त करती है। इसलिए मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग, यह क्रम रखा गया है। यहाँ यह विशेष ध्यातव्य है कि पूर्व-पूर्व के कारणों के रहने पर उत्तरोत्तर कारण अनिवार्य रूप से रहते हैं। जैसे- मिथ्यात्व के होने पर शेष चारों कारण भी रहेंगे, किन्तु अविरति रहने पर मिथ्यात्व रहे, यह कोई नियम नहीं है। भिन्न-भिन्न अधिकरणों की अपेक्षा ही उक्त प्रत्यय बताये गए हैं।
कर्म रूप में बदले हुए पुद्गल परमाणुओं का जीवात्मा के साथ एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध हो जाना बन्ध है। दो पदार्थों के मेल को बन्ध कहते हैं। यह सम्बन्ध धन और धनी की तरह का नहीं है, न ही गाय के गले में बन्धने वाली रस्सी की तरह का, वरन् बन्ध का अर्थ जीव और कर्म-पुद्गलों का मिलकर एकमेक हो जाने से है। दूध में जल की तरह आत्मा के प्रदेशों में कर्म प्रदेशों का एकमेक हो जाना ही बन्ध कहलाता है । जिस प्रकार सोने और ताँबे के संयोग से एक विजातीय अवस्था उत्पन्न हो जाती है, अथवा हाइड्रोजन और ऑक्सीजन रूप दो गैसों के सम्मिश्रण से जल रूप एक विजातीय पदार्थ की उत्पत्ति हो जाती है, उसी प्रकार बन्ध पर्याय में जीव और पुद्गलों की एक विजातीय अवस्था उत्पन्न हो जाती है, जो न तो शुद्ध जीव में पाई जाती है, न ही शुद्ध पुद्गलों में।
इसका अर्थ यह नहीं है कि बन्धावस्था में जीव और पुद्गल कर्म सर्वथा अपने स्वभाव से च्युत हो जाते हैं तथा फिर उन्हें पृथक् किया ही नहीं जा सकता। उन्हें पृथकू भी किया जा सकता है - जैसे मिश्रित सोने और ताँबे को गलाकर अथवा १. सुहदुक्ख बहुसस्स कम्मक्लेत्ते कसेइ जीवत्स संसारमेर सेण कसाओत्तिण विति।। २. दुःख भस्य कर्मक्षेत्र कर्षन्ति फलवत् कुर्वन्तीति, कषायाः क्रोधमानमायालोमा:-धवला पु6/41 ३. सर्वार्थसिद्धि,6/1 ४. प्रयोजनस्य गुणस्थानभेदेन बन्धहेतुविकल्पयोजन बोडव्यमा-तत्वार्यवृत्ति,भास्करनन्दि पृ453
ब.विस्तरस्तु गुणस्थानक्रमापेक्षा पूर्वोक्तं चतुष्टयं पंच या कारणानि भवन्ति । जैनदर्शनसार,पृ. 4 ५. भासवरातकर्मणः भात्मना संयोगः बन्धः। - तत्वार्थाधिगम भाष्य, हरिभद्र, 1/3
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