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नहीं होती है। जीव कुगुरु, कुदेव, कुधर्म और लोक मूढ़ताओं को ही धर्म मानता है। मिथ्यात्व ही दोषों का मूल है, इसलिए इसे जीव का सबसे बड़ा अहितकारी कहा गया है।
इस मिथ्यात्व के पाँच भेद हैं -
1. एकान्तमिथ्यात्व - वस्तु के किसी एक पक्ष को ही पूरी वस्तु मान लेना, जैसे पदार्थ नित्य ही है या अनित्य ही है। अनेकात्मक वस्तु तत्त्व को न समझ कर एकांगी दृष्टि बनाये रखना । वस्तु के पूर्ण स्वरूप से अपरिचित रहने के कारण सत्यांश को ही सत्य समझ लेना।
2. विपरीतमिथ्यात्व - पदार्थ को अन्यथा मानकर अधर्म में धर्मबुद्धि रखना।
3.विनयमिथ्यात्व - सत्य-असत्य का विचार किये बिना तथा विवेक के अभाव में जिस किसी की विनय को ही अपना कल्याणकारी मानना।
4. संशयमिथ्यात्व - तत्त्व और अतत्त्व के बीच संदेह में झूलते रहना। 5. अज्ञानमिथ्यात्व - जन्म-जन्मान्तरों के संस्कार के कारण विचार और विवेक-शून्यता से उत्पन्न अतत्त्वश्रद्धान।
2. मविरति - सदाचार या सम्यक्चारित्र को ग्रहण करने की ओर रुचि या प्रवृत्ति का न होना अविरति है। मनुष्य कदाचित् चाहे भी तो, कषायों का ऐसा तीव्र उदय रहता है, जिससे वह आंशिक सम्यक्चारित्र भी ग्रहण नहीं कर पाता।
3. प्रमाद - प्रमाद का अर्थ होता है 'असावधानी' । आत्मविस्मरण या अजागृति को प्रमाद कहते हैं । अधिक स्पष्ट करें तो कर्तव्य और अकर्तव्य के प्रसग में सावधानी न रखना प्रमाद है। कुशल कार्यों के प्रति अनादर या अनास्था होना भी प्रमाद है ।' प्रमाद के पन्द्रह भेद हैं - पाँच इन्द्रिय, चार विकथा, चार कषाय, स्नेह और निद्रा ।
पाँचों इन्द्रियों के विषय में तल्लीन रहने के कारण राजकथा, चोरकथा, स्त्रीकथा और भोजनकथा आदि विकथाओं में रस लेने के कारण क्रोध, मान, माया एवं लोभ इन चार कषायों से कलुषित होने के कारण तथा निद्रा, स्नेह आदि में मग्न रहने के कारण कुशल कार्यों में अनादर भाव उत्पन्न होता है। इस प्रकार की असावधानी से कुशल कर्मों के प्रति अनास्था भी उत्पन्न होती है और हिंसा की भूमिका तैयार होती है। हिंसा का मुख्य कारण प्रमाद है
4. कवाय - 'कषाय' शब्द दो शब्दों के मेल से बना है 'कष् + आय' । क का अर्थ संसार है, क्योंकि इसमे प्राणी विविध दुःखों के द्वारा कष्ट पाते हैं, आय का अर्थ है लाभ । इस प्रकार कषाय का सम्मिविद अर्थ हुआ कि जीव को जिन भाबों के द्वारा संसार की प्राप्ति हो, वे कषायभाव हैं।'
वस्तुतः कषायों का वेग बहुत ही प्रबल है। जन्म-मरण रूप यह संसार वृक्ष कषायों के कारण ही हरा-भरा रहता है। यदि कषायों का अभाव हो, तो जन्म-मरण की शृंखला रूप यह विष-वृक्ष स्वयं ही सूखका नष्ट हो जाए। कषाय ही समस्त सुख-दुःखों का मूल है। कषाय को कृषक की उपमा देते हुए पंचसंग्रह में कहा गया है कि कषाय एक ऐसा कृषक है, जो चारों गतियों की मेड़ वाले कर्म रूपी खेत को जोतकर सुख-दुःख रूपी अनेक प्रकार के धान्य उत्पन्न करता है।" १. तत्त्वार्यवार्तिक, 8/1/6, २.कुशलेखनादर: प्रमादः।- सर्वार्थसिद्धि, 8/1, ३. पंचसंग्रह, प्राकृत, 1/15 ४. कपः संसार: तस्य आय: प्राप्तयः कषायाः।-पंचसंग्रह, स्वोपज, 3/35