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मन, वचन और काय की प्रवृत्ति शुभ और अशुभ के भेद से दो प्रकार की होती है। शुभ प्रवृत्ति को शुभ योक तथा अशुभ प्रवृत्ति को अशुभ योग कहते हैं। शुभ योग शुभासव का कारण है तथा अशुभ योग से अशुभ कर्मों का मामय होता है। विश्वक्षेम की भावना, सबका हित-चिन्तन, दया, करुणा और प्रेमपूर्ण शुभ मनोयोग है। प्रिय-सम्भाषण, हितकारी वचन, कल्याणकारी उपदेश ‘शुभवचनयोग' के उदाहरण हैं तथा परोपकार, दान एवं देवपूजा आदि 'शुभकाययोग' के कार्य हैं। इनसे विपरीत प्रवृत्तियाँ 'अशुभयोग' कहलाती हैं। . आसबके भेद ।
आसव के द्रव्यासव और भावासव रूप दो भेद हैं। जिन शुभाशुभ भावों से कार्मण वर्गणाएँ कर्म रूप परिणत होती हैं, उसे 'भाबासव' कहते हैं तथा उन वर्गणाओं का कर्म-रूप परिणत हो जाना 'द्रव्यासव' है। दसरे शब्दों में जिन भावों से कर्म आते हैं, वह भावास्रव है तथा कर्मों का आगमन द्रव्यासव है। जैसे- छिद्र से नाव में जल प्रवेश कर जाता है, वैसे ही जीव के मन, वचन, काय के छिद्र से ही कर्म-वर्गणाएँ आकर्षित/प्रविष्ट होती हैं। छिद्र होना भावासव का तथा कर्मजल का प्रवेश करना, द्रव्यासव का प्रतीक है।
सकषाय और निष्कषाय जीवों की अपेक्षा द्रव्यासव दो प्रकार का कहा गया है - 1. साम्परायिक और 2. ईर्यापथा'
1. साम्परायिक मानव - 'साम्पराय' का अर्थ कषाय होता है । यह संसार का पर्यायवाची है। क्रोधादिक विकारों के साथ होने वाले आम्रव को 'साम्परायिक-आसव' कहते हैं। यह आस्रव आत्मा के साथ दीर्घकाल तक टिका रहता है । कषाय स्निग्धता का प्रतीक है। जैसे तेलसिक्त शरीर में धूल चिपककर दीर्घकाल तक टिकी रहती है, वैसे ही कषाय सहित होने वाला यह आम्रव भी दीर्घकाल अवस्थायी रहता है।
2.ईपिय मानव - आस्रव का दूसरा भेद ईयर्यापथ है। यह मार्गगामी है अर्थात् आते ही चला जाता है, ठहरता नहीं। जिस प्रकार साफ-स्वच्छ दर्पण पर पड़ने वाली धूल उसमें चिपकती नहीं है, उसी प्रकार निष्कषाय, जीवन-मुक्त महात्माओं के योग मात्र से होने वाला आसव 'ईर्यापथ आसव' कहलाता है। कषायों का अभाव हो जाने के कारण यह दीर्घकाल तक नहीं ठहर पाता। इसकी स्थिति एक समय की होती है। आसव के कारण
जैनागम में आसव के पाँच कारण बताये हैं - 1. मिथ्यात्व, 2. अविरति, 3. प्रमाद, 4. कषाय और 5. योग ।
1: मिथ्यात्व - विपरीत श्रद्धा या तत्त्वज्ञान के अभाव को मिथ्यात्व कहते हैं। विपरीत श्रद्धा के कारण शरीर आदि जड पदार्थों में चैतन्य बुद्धि, अतत्त्व में तत्त्वबुद्धि अकर्म में कर्मबुद्धि आदि विपरीत मान्यता/प्ररूपणा मानी जाती है। मिथ्यात्व के कारण जीव को स्व-पर विवेक नहीं हो पाता । पदार्थों के स्वरूप में भ्रान्ति बनी रहती है। कल्याणमार्ग में सही श्रद्धा नहीं होती। यह मिथ्यात्व सहज और गृहीत दोनों प्रकार से होता है। दोनों प्रकार के मिथ्यात्व में तस्वरूचि जागृत
१. शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य । - तत्त्वार्थसूत्र, 6/3 २, सर्वार्थसिदि, 6/ ३. तत्त्वार्थसूत्र, 6/4 ४. तत्त्वार्थवार्तिक, 6/4/7, ५. द्रव्यसंग्रह, माथा 30,..