SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 246
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 190/सा -नि कर्म-बन्ध की प्रक्रिया * . जिनेश जैन, प्रतिज्ञाचार्य जैनदर्शन के सात तत्वों में से आदि के दो तत्त्व अर्थात जीव और अजीव तत्त्वों का निरूपण प्रमुख रूप से किया जाता है। यथार्थतया इनका ही विस्तार शेष तत्वों का अस्तित्व पैदा करता है। अजीव तस्व से ही क्रमश: आस्रव और बन्ध नामक तत्वों स्वरूप ग्रहण करते हैं। इनका ही विशेष विवरण यहाँ अपेक्षित है, चूंकि यह विषय कर्म-सिद्धान्त का है, अत: इसे आधुनिक भाषा में जैन मनोविज्ञान भी कह सकते हैं। आसव कर्मों के आगमन को 'आसव' कहते हैं। जैसे नाली आदि के माध्यम से तालाब आदि जलाशयों में जल प्रविष्ट होता है, वैसे ही कर्म-प्रवाह आत्मा में आस्रव द्वार से प्रवेश करता है। आसव कर्म-प्रवाह को भीतर प्रवेश देने वाला द्वार है। जैनदर्शन के अनुसार यह लोक पुद्गल-वर्गणाओं से ठसाठस भरा है । उनमें से कुछ ऐसी पुद्गल-वर्गणाएँ हैं जो कर्म णत होने की क्षमता रखती हैं. इन वर्गणाओं को कर्म-वर्गणा कहते हैं। जीव की मानसिक. वाचिक और कायिक प्रवृत्तियों के निमित्त से ये कार्मण-वर्गणाएँ जीव की ओर आकृष्ट हो, कर्म रूप में परिणत हो जाती हैं और जीव के साथ उनका सम्बन्ध हो जाता है । कर्मवर्गणाओं का कर्म रूप में परिणत हो जाना ही आसव है। जैन कर्म-सिद्धान्त के अनुसार जीवात्मा मे मन, वचन और शरीर रूप तीन ऐसी शक्तियाँ हैं, जिनसे प्रत्येक संसारी प्राणी में हर समय एक विशेष प्रकार का प्रकम्पन/परिस्पन्द होता रहता है। इस परिस्पन्दन के कारण जीव के प्रत्येक प्रदेश, सागर में उठने वाली लहरों की तरह तरंगायित होते रहते हैं। जीव के उक्त परिस्पन्दन के निमित्त से कर्मवर्गणाएँ कर्म रूप से परिणत होकर जीव के साथ सम्बन्ध को प्राप्त हो जाती हैं, इसे 'योग' कहते हैं। यह योग ही हमे कर्मों से जोड़ता है, इसलिए 'योग' यह इसकी सार्थक संज्ञा है। योग को ही 'आसव' कहते हैं। 'आसव' का शाब्दिक अर्थ है 'सब ओर से आना', 'बहना', 'रिमना' आदि । इस दृष्टि से कर्मो के आगमन को आस्रव करते हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि कर्म किसी भिन्न क्षेत्र से आते हों, अपितु हम जहाँ हैं, कर्म वहीं भरे पड़े हैं। योग का निमित्त पाते ही कर्म-वर्गणाएँ कर्म रूप से परिणत हो जाती हैं। कर्म-वर्गणाओं का कर्म रूप से परिणत हो जाना ही आसव कहलाता है। १. द्रव्यसंग्रह, टीका 28, २. तत्त्वार्थवार्तिक, 6/2/4, ३.जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश,3/513 १. कायवाङ्मनः कर्म योगः। - तत्त्वार्थसूत्र, 6/1 २.स आसवः । वही, 6/2 ३. तस्वार्थवृत्ति, श्रुतसागर, 6/2 * अधिष्ठाता, श्री वर्णी दिगम्बर जैन गुरुकुल, पिसनहारी, जबलपुर, 0761-2370991
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy