SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 245
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकार ध्यान कहा गया है जिसके धर्मध्यान व शुक्लध्यान के रूपों में पहुंचने पर कर्म ध्यानाग्नि के कारण तथा ज्ञान धौंकनी के प्रयोग से जला देना, विनष्ट कर देना, एक ऐसी प्रक्रिया है जो आत्मा को कविता से मुक्त करती है। लब्धिसार में इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को गणितीय रूप दिया गया है जो जयधवला या कषायप्राभृत का सार रूप गणितीय विधा को सम्मुख लाता है। बुद्धि और प्रज्ञा, दोनों का अप्रतिम प्रयोग किया गया है, क्योंकि बुद्धि का कार्य बीजगणित सम्हालती है और प्रज्ञा का कार्य संख्यात अंकगणित तथा आकार रूप गणित सम्हालती है । इस प्रकार इन ग्रन्थों में कर्मों के बन्ध का, कर्मों के उपशम, क्षयोपशम, क्षय, गुणस्थानों आदि के सम्बन्ध सम्मुख रखते हुए गणितीय प्रमाण दिये गये हैं गणस्थानों का सम्बन्ध तदवस्थित जीव के भावों व परिणामों से जोड़ा जाता है. ये क्षायोपशमिक वा औपशमिक भावों के प्रभावों रूप होता है तथा गणितीय अध्यात्मवाद की ओर ले जाता प्रतीत होता है। इस प्रकार कर्मवाद का गणित अनेक विमाओं पर आधारित होता है, जो आधुनिक जीवविज्ञान, रसायन विज्ञान, भौतिकविज्ञान आदि के सयुक्त रूप से प्रवर्तित गणितीय रूप से भी आगे ले जाता है। जो भी हो, यह अध्ययन अत्यन्त लाभदायी हो सकता है। ___ आधुनिक सभ्यता चाहे जितने आगे निकल गई हो, किन्तु प्रकृति के प्रकोपों से बचाने में, मृत्यु को जीतने में, मानवीय सम्बन्धों को प्रिय बनाने में सफल नहीं हो सकी है। यही कारण है कि धर्म उद्भावना प्रत्येक व्यक्ति को प्रेरित करने की ओर कभी मिट नहीं सकती है। हो सकता है कि कर्म और धर्म के भेद को यथोचित रूप से समझने में भ्रम हो, अत: कर्म वा धर्म के गणितीय रूप की ओर बढ़ने में जो सकेत हमें तत्त्वार्थसूत्र में प्राप्त होते हैं उनको विशेष रूप से विवेचित किया जाना आवश्यक है। पर्युषणपर्व के समय या शिविरों में इन प्रमुख गणितीय रूपों को मात्र श्रद्धा का विषय न बनाकर ऊहापोह विवेचना का विषय आधुनिक वैज्ञानिक विधाओं के सम्मुख रखते हुए शकाओं का समाधान करना कल्याणप्रद होगा। यह समाज के लिए अद्वित्तीय सौभाग्य की बात है कि पूज्य मुनिपुगव श्री 108 प्रमाणसागर द्वारा तत्त्वार्थसूत्र के ऐसे ही विशाल अध्ययन की ओर विद्वानों को तथा जनसामान्य को प्रेरित किया गया है। ऐसे ही उद्देश्यों को लेकर उनके द्वारा अनेक नगरों मे जो प्रेरणास्पद क्रिया कलाप प्रारम्भ किये गये है, वे एक नये इतिहास के निर्माण का संकेत दे रहे हैं । यही मार्ग सम्बग्दर्शन की ओर ले जाता हुआ दृष्टिगत हो रहा है, जिसके असहाय पराक्रम को प्राप्त करने की आज अपरिहार्यता अनुभव में आ रही है। तभी संयम आदि धार्मिक चारित्र परिपूर्णता की ओर अग्रसर हो सकेंगे तथा उन्हें निश्चित ही शान की जड़ें सुदृढ़ संकल्पों के दायरे में ले जा सकेंगी। सन्तशिरोमणि गुरुदेव पूज्य श्री 108 आचार्य विद्यासागर जी के साये में इस संसार सागर में. ऐसी ही संयोष्ठियों या शिविर प्रक्रिया प्रकाश स्तम्भ का कार्य सम्हाल सकेंगी।
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy