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188/तस्वार्थ सूना-निकया होते हैं जो कर्म वस्तु को उत्पन्न करने वाले होते हैं और उनका विनाश करने वाले भी होते हैं। जो कर्म का विनाश आदि करने वाले होते हैं वे विशुद्धि नामक परिणामों की गणित से सम्बन्ध रखते हैं, जिसे हम धर्म के नाम से पुकारते हैं। कर्म सम्बन्धी ज्ञान की सीमाएँ निहित हैं परन्तु धर्म से उत्पन्न उपलब्धियाँ असीम, अखण्ड, चिरस्थायी, अनन्तदर्शन, ज्ञान, बलवीर्य वा सुख लिये हुए होती हैं। गणितीय प्ररूपण में हम इन सभी को विशुद्धि रूप परिणामों के गणित द्वारा प्रकट रूप में बतला सकते हैं। जो मार्ग कर्म का है - क्रोधादि को लिये हुए है, क्रूर है, उसके विपरीत धर्म आदि का मार्ग क्षमादि गुण लिए हुए मृदु वा करुणा से ओतप्रोत है। इन सभी की इकाइयाँ हैं, पुद्गल द्रव्य या भाव के प्रमाणों से, कर्म के द्रव्य वा भाव प्रमाणों से तथा जीव के द्रव्य वा भाव प्रमाणों से ओतप्रोत हैं तथा उनके बीच जो सम्बन्ध गणित द्वारा प्रकाश में आते हैं वे सभी एक विलक्षण -कम्प्युटर के द्वारा भी निर्दिष्ट किये जाने में अति कठिन पहेलियों सामने लाते हैं। इतना सारा न्यास (डाटा) किस प्रकार की क्षमता वाले कम्प्यूटर में लाया जा सकेगा, वह अणुविज्ञान की कठिनतम समस्याओं से भी आगे है। जैसे डी. एन. ए., आर. एन.ए. आदि की विशाल शृंखलाएँ भिन्न-भिन्न जीवों में भिन्न-भिन्न प्रकार से बनती चली आई हैं या बनती चली जायेंगी, वह आश्चर्यजनक रूप अलग-अलग जीवों के सत्त्व रूप में स्थितिरचना यंत्र में या टेन्सर रूप समीकरण में समयप्रबद्ध रूप में देखी जा सकती है। डी.एन.ए. को जीवन की कुंजी माना जाता है, वैसे ही नामकर्म की उत्तरप्रकृतियों द्वारा जीवन की संरचना पहिचानकर एक नई विमा में, विधा में, पहुँचा जा सकता है। जब भी असाता वेदनीय कर्म का उदय, उदीरणा रूप आता है तभी समझ लें कि डी.एन.ए. आदि के कार्य में कोई विकार आया है, और उस समय, जैसे आज डी.एन.ए. को जिनेटिक इंजीनियरिंग द्वारा काटकर नये अविकृत डी.एन.ए. की शंखला पेस्टकर बीमारियों को दूर करने के प्रयास चल रहे हैं, उसी प्रकार जैनकर्मवाद में भी जीवन की कुंजी को विशुद्धि रूप सातावेदनीय परिणामों की उत्पत्ति कर असातावेदनीय को हटाने का उपक्रम सीखा जा सकता है।
जहाँ बन्ध के कारण के लिए अष्टम अध्याय तत्त्वार्थसूत्र (8/1) में मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग को हेतु माना जाता है, वहाँ हमें कषाय और योग के गणितीय रूप मिलते हैं। शेष का गणितीय रूप शोध का विषय बनता है। विभिन्न प्रकतियों के स्थिति बन्ध के उत्कष्ट और जघन्य प्रमाण किस आधार पर निश्चित किये गये. यह भी शोध की प्रेरणा देता है। बन्ध का लक्षण सूत्र (8/2) में दिया गया है। समस्त लोक में कार्मण जाति की वर्गणाएँ भरी हुई हैं, तथा समस्त जीवों के साथ प्रकृत्या एक क्षेत्रावगाही हैं, उनका कषाय के सानिध्य में जो विशिष्ट सम्बन्ध हो जाता है वही बन्ध कहा जाता है। फिर उन बद्ध कर्मो के उदय में कषाय होती है, फिर बन्ध होता है, इसी परम्परा को संसार कहते हैं। स्मरण रहे कि कषाय की इकाई को कर्म परमाणुओं के अनुभाग के आधार पर तय किया जाता है, किन्तु योग की इकाई को आत्मा के प्रदेशों के परिस्पन्द से गणितीय रूप में निर्धारित किया जाता है। कर्मों के आठ मूल प्रकार हैं और उनके उदय से तदनुसार उन कर्म प्रकृतियों के संवेदनादि होते हैं।
तत्त्वार्थसूत्र में सूत्र (6/1) में आत्मा के प्रदेशों के परिस्पन्द को (हलन-चलन को) योग कहा गया है। आत्मप्रदेश परिस्पन्द मन, वचन, काय की प्रवृत्ति के निमित्त से होता है। इस कारण निमित्त कारण में कार्य का उपचार करके शरीर मन की क्रिया को योग कहा गया है । (6/2) के अनुसार योग के निमित्त से कर्मों का आसव होता है, अत: योग को आसव कहा गया है। नवम अध्याय के प्रथम सूत्र में कर्मों के आसव को रुक जाने को संवर कहा गया है जिसके कारण (9/2) में गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय व चारित्र रूप भावों द्वारा बतलाया गया है। यही आगे तप के द्वारा निर्जरा भी होना बतलाया है। आगे बाह्यतप और आभ्यन्तरतप के भेद-प्रभेद बतलाये गये हैं । अन्तरंग तप में अन्तिम