SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 243
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इसी प्रकार कर्मप्रकृतियों के वर्णन मे प्रदेश, स्थिति तथा अनुभाग वस्तुत: गणितीय प्रमाणों से होवोत है जो चर-राशियाँ हैं तथा बलों के प्रयोग से या करणों के प्रयोग से, योग या कषायों से किस प्रकार परिवर्तित होती हैं, इसके गणितीय विवेचन को कितनी सरलता से तत्वार्थसूत्र में लाया गया है, वह वस्तुतः मोक्ष की सीढी का पहला पायदान है । उसी दिशा में बढ़ते जाना है, किन्तु गणनाओं द्वारा अपनी स्थिति का पूरा-पूरा ख्याल रखते हुए, चेतना-जागृति की अवस्था को कायम-अवस्थित रखते हुए, बड़ा कठिन प्रतीत होता है । इस जागृत अवस्था में चेतक अपने पारिणामिक भावों में बहता है, और वह बुद्धि वा प्रज्ञा, दोनों को कर्म विज्ञान समझने में लगाता है। यदि हम कर्म की इन प्रकृतियों में विज्ञान की उपलब्धियों को देखना चाहें तो हम पायेंगे कि इनके उपशम व क्षयोपशम के माध्यम से निम्न प्रकार के विज्ञानों की ओर विश्व के कदम बढे होगे। यथा - दर्शनावरणीय - दूरदर्शन, रेडियो, इलेक्ट्रानिक्स, रसायन, सुगन्धविज्ञान. आदि ज्ञानावरणीय - सूचनातत्र, कम्प्यूटर, सिस्टम व सायबरनेटिक्स सिद्धान्त आदि मोहनीय - मनोविज्ञान, परामनोविज्ञान आदि, मस्तिष्क विज्ञान आदि अन्तराय - सैनिकादि बल प्रयोग, पर्यावरण, नेनोविज्ञान आदि नामकर्म - जिनेटिक्स (जननविज्ञान), क्रोमोसोम, जीन, डी. एन. ए. आदि गोत्र - आनुवंशिकी, वशानुक्रम, हेरिडिटी आदि वेदनीय - पैथालॉजी, मेडिकल साइसेज, सर्जरी आदि आयु - सायटालाजी (कोषिका विज्ञान), पुरातत्व, ज्योतिष, बायोलॉजी आदि सबसे अधिक विस्मयकारी तथ्य यह है कि जैन कर्मवाद में गणितीय प्रमाणो को देते हुए जहाँ कही भी सम्भव हुआ है वहाँ गणितीय न्याय या दर्शन का उपयोग किया गया है। यह विशेषकर चौदह धाराओं में, जो त्रिलोकसार मात्र में उपलब्ध है, गहराई से किया गया प्रतीत होता है। यतिवृषभाचार्य की तिलोयपण्णत्ती तथा वीरसेनाचार्य की धवलादि टीकाओं में भी यह देखने में आया है । बरट्रेण्ड रसैल ने यूनानियों के दर्शन के अध्ययन करते हुए यह पाया कि वे, गणितीय दर्शन की ओर पिथेगोरस काल या युग से बढ़ते दिख रहे थे, किन्तु वे अनन्तों के अल्पबहुत्व तक न पहुँच सके थे । यह श्रेय जर्मनी के जार्ज केण्टर को नवी सदी मे प्राप्त हुआ जिनकी राशि सिद्धान्त में रसैल ने केवल एक अन्तर्विरोध दिखाकर गणित की आधारशिलाओं को हिला दिया था। इसी कारण बीसवीं सदी के प्रारम्भ से गणितीय दर्शन की खोज चल पडी और गणित में राशि सिद्धान्त को लेकर नई आधारशिलाएँ, क्रमश: रसैल, ब्रोवर और हिलबर्ट मे डालना प्रारम्भ की। आज भी भौतिकी मे तीन प्रकार के अनन्तों का उपयोग, जो एक से बढ़कर एक हैं, अणुविज्ञान में किया जा रहा है। इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र एक छोटा सा झरोखा है, जिसमें से हम कर्मवाद की आधारशिलाओं को सरलतम भाषा से समझ सकते हैं। उस कर्मवाद की अपार सामग्री को, जो विद्यानुवाद के पूर्वो में दी गई थी, उसका मात्र एक अत्यल्प अंश हम धवलादि टीकाओं या गोम्मटसार या लब्धिसार की टीकाओं में पाते हैं। साथ ही, जब देखते हैं कि यह झरोखा कर्म के नाश होने पर ही मोक्ष की मजिल तक ले जाता है, तब प्रश्न खड़ा होता है कि कर्म को बड़ी गहराई से समझा जाये कि हम किस प्रकार के कर्म में लिप्त हैं - वह पाप या पुण्य रूप है - लोहे या सोने की बेड़ो रूप है - तो उस बेड़ी के बंधन को बढ़ाया जाय, जाल जैसा, या घटाया, दबाया या काटा जाये। यहाँ से उस गणित का प्रारम्भ होता है जिसमें ऐसे कारण
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy