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194 / सत्यार्थ-निय
प्रयोग विशेष से जल को पुनः हाइड्रोजन और ऑक्सीजन रूप में परिणत किया जा सकता है। उसी प्रकार कर्मबद्ध जीव भी अपने पुरुषार्थजन्य प्रयोग के बल से अपने आपको कर्मों से पृथक् कर सकता है।
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जीव के मन, वचन और काय की प्रवृत्ति के निमित्त से कार्मण वर्गणाओं का कर्म रूप से परिणत होना 'आम्रव' है तथा आम्रवित कर्म - पुद्गलों का जीव के रागद्वेष आदि विकारों के निमित्त से आत्मा के साथ एकाकार एक रस हो जाना ही 'बन्ध' है । बन्ध आम्रवपूर्वक ही होता है। इसीलिए आस्रव को बन्ध का हेतु कहते हैं।' आस्रव और बन्ध दोनों युगपत् होते हैं। उनमें कोई समय भेद नहीं है। आस्रव और बन्ध का यही सम्बन्ध है। सामान्यतया आस्रव के कारणों को ही बन्ध का कारण (कारण का कारण होने से) कह देते हैं, किन्तु बन्ध के लिए अलग शक्तियाँ कार्य करती हैं। बन्ध के कारण
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मूल रूप से दो ही शक्तियों कर्म बन्ध का कारण हैं- योग और कषाय । योग रूप शक्ति के कारण कर्म वर्गणाएँ जी की ओर आकृष्ट होती हैं तथा रागद्वेष आदि रूप मनोविकार कषायों का निमित्त पाकर जीवात्मा के साथ चिपक जाते हैं अर्थात् योग शक्ति के कारण कर्म वर्गणाऍ कर्म रूप में बदल जाती हैं तथा कषायो के कारण उनका आत्मा के साथ संश्लेष रूप एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध होता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि कर्म-बन्ध में मूल रूप से दो शक्तियाँ योग और कषाय काम करती हैं।
इन दोनों शक्तियों में से कषायों को गोंद की, योग को वायु की, कर्म को धूल की तथा जीव को दीवार की उपमा दी जाती है। दीवार गीली हो अर्थात् उस पर गोंद लगी हो तो वायु से प्रेरित धूल उस पर चिपक जाती है, किन्तु साफस्वच्छ दीवार पर वह चिपके बिना झडकर गिर जाती है। उसी प्रकार योग रूपी वायु से प्रेरित कर्म भी कषाय रूपी गोद युक्त आत्मप्रदेशों से चिपक जाती है। धूल की हीनाधिकता वायु के वेग पर निर्भर करती है तथा उनका टिके रहना या चिपका रहना गोंद की प्रगाढ़ता और पतलेपन पर अवलम्बित है। गोद के प्रगाढ़ होने पर धूल की चिपकन भी प्रगाढ़ होती है तथा उसके पतले होने पर धूल की चिपकन भी अल्पकालिक होती है। उसी प्रकार योग की अधिकता से कर्म प्रदेश अधिक आते हैं तथा उनकी हीनता से अल्प । उत्कृष्ट योग होने पर कर्म प्रदेश उत्कृष्ट बँधते हैं तथा जघन्य होने पर जघन्य । उसी प्रकार यदि कषाय प्रगाढ़ होती हैं तो कर्म अधिक समय तक टिकते हैं तथा उनका फल भी अधिक मिलता है। कषायों के मन्द होने पर कर्म भी कम समय तक टिकते हैं तथा उनका फल भी अल्प मिलता है। इस प्रकार योग और कषाय रूपी शक्तियाँ ही बन्ध के प्रमुख कारण हैं। इसलिए जैनधर्म में कषाय के त्याग पर जोर देते हुए कहा गया है कि 'जो बन्ध नहीं करना चाहते, उन्हें कषायें भी नहीं करना चाहिए।"
बन्ध के भेद
द्रव्य बन्ध और भाव बन्ध की अपेक्षा बन्ध के दो भेद किये गए हैं। जिन राग, द्वेष, मोह आदि मनोविकारों से कर्मों का बन्ध होता है, उन्हें 'भावबन्ध' कहते हैं तथा कर्म-पुद्गलों का आत्मा के साथ एकाकार । जाना 'द्रव्यबन्ध' है। ' भावबन्ध ही द्रव्यबन्ध का कारण है, अतः उसे प्रधान समझकर उससे बचना चाहिए।
सर्वार्थसिद्धि, 1/4,
१. आत्मकर्मणोरन्योन्यप्रवेशानुप्रवेशात्मको बन्धः ।
२. आम्रो बन्धहेतुर्भवति । - जैनदर्शनसार, पृ. 44
३. सत्कार्यसूत्र, ३/२२. द्रव्यसग्रह, टीका 33, ४. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृ. 35
५. संग्रह टीका 32