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________________ • 184 / स्वार्थसून-निक जैन कर्मवाद : तत्त्वार्थसून * प्रो. लक्ष्मीचन्द जैन भारतीयदर्शन - जगत् में माया और कर्म अत्यन्त गहन प्रत्यय हैं। भारतीय विचारधारा प्रभाव से ही कर्मवाद का प्रबल समर्थन करती रही है। जो जैसा बोता है वह वैसा ही काटता है। कर्म के तीन रूप संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण माने जाते रहे हैं। पुनर्जन्म का आधार भी कर्म माना गया है। भारतीयों का भाग्यवाद भी मूलतः कर्मवाद पर आधारित किया गया है। कर्म के फल प्रदाय के सम्बन्ध में दो मत पनपे एक मत ईश्वरवादी तथा दूसरा मत निरीश्वरवादी प्रचलित हुआ। इस सम्बन्ध में मीमांसा, गीता, वेद, उपनिषद् ग्रन्थों में कर्म सम्बन्धी विवेचन मिलते हैं। दार्शनिक सम्प्रदाय मे कर्मवाद विशेष रूप से विकसित हुआ । जैनदर्शन, बौद्धदर्शन, न्यायदर्शन सूत्र, सांख्यदर्शन, पतंजलि योगशास्त्र, मीमांसा तथा गीता में कर्मवाद सम्बन्धी तथ्य विशेष रूप से वर्णित हैं। यह वाद सिद्धान्त रूप में भी विकसित किया गया। यहाँ तक कि दिगम्बर जैन महर्षियों, आचार्यो ने कर्मवाद को गणितीय आधार देने का अप्रतिम प्रयास किया जो आगे जाकर गणितीय समीकरणों के रूप में यथाविधि निर्मित गणितीयप्रतीकों, संदृष्टियों के द्वारा अनेक रहस्यों को खोलता चला गया। कर्मवाद के विस्तृत एवं गहरे विकास को जब सिद्धान्त रूप में ढाला गया जो गणितीय प्रतीकों से भरपूर था, तब उसका अध्ययन किनारा कर गया । दो, दो शताब्दियों के अन्तराल में गणितीय प्रतिभा सम्पन्न आचार्य ही उस पर टीकाएं निर्मित करते चले गये, जिनमें नवीं सदी के वीरसेनाचार्य की धवल, जयधवल टीकाएँ हैं, जो बत्तीस जिल्दों में है । हमें उपलब्ध हो सकीं, शेष काल के गाल में समा गयीं। ये टीकाऍ ईसा की प्रथम सदी के आसपास रचित षट्खण्डागम एवं कषायप्राभृत ग्रन्थों पर रची गयी थीं। महाधवल कहलाने वाला महाबंध ग्रन्थ भी इसी प्रथम सदी में भगवन्त भूतबलि द्वारा रचा गया था, जिनके ज्येष्ठ आचार्य पुष्पदन्त थे और दोनों ही घनाक्षरी तथा हीनाक्षरी विद्याओं को सिद्धहस्त किये हुए । महाबंध भी सात जिल्दों में प्राप्य है। इस प्रकार कर्म सिद्धान्त का विशेष अंश इन उनतालीस जिल्दों की आधुनिक सामग्री रूप में है। इस प्रकार इस गणितीय कर्मवाद को, जिसे यूनिवर्सल अध्ययन हेतु निर्मित किया गया, आज के किसी भी आधुनिकतम वैज्ञानिक सिद्धान्त के समक्ष रखने योग्य है। इसमें ही प्रवेश करने हेतु, आचार्य कुन्दकुन्द के पश्चात् हुए आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र की रचना की। इस प्रकार, यह तत्त्वार्थसूत्र परम्परा से न केवल मुनिवर्ग या श्रावकवर्ग के लिए उपयोगी सिद्ध हुआ, वरन् वह एक अत्यन्त पूज्यनीय, पठनीय, स्मरणीय, साधना आदि के बड़े महत्त्व को भी प्राप्त हुआ। इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र की रचना का प्रयोजन, अभिप्राय, प्रेरणा व लक्ष्य सिद्ध हुआ । गणितीय वस्तु जिस कर्मवाद को सिद्धान्त रूप में लाया गया, उसे सरल दार्शनिक शब्दों में आधारशिला रूप रचित किया गया। -दूसरा ही सूत्र, तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् में तत्त्व ही सर्वनाम का भाव है। जो भी कोई पदार्थ जिसे रूप से *554, दोसा ज्वेलर्स, सराफा बाजार, जबलपुर
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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