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- अवस्थित है, उसका उसी रूप होना तत्त्व है । अर्थ यह है जो निश्चय किया जाता है। साथ ही किसी पारविषय या वस्तु) के द्रव्य, क्षेत्र, काल, माव के प्रमाण आदि को भी अर्थ कहते हैं। इसी अर्थ को लेकर प्रमाण रूप माणितीय संदृष्टियों बनाई गई जिन्हें अर्थसंदृष्टिया कहते हैं। इनका स्वरूप मुनि केशव वर्णी की गोम्मटसार की कर्णाटवृत्ति जोपरयापिका में दृष्टव्य है, जो भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली से चार भागों में प्रकाशित हुई है। केवलज्ञान की अर्थ संदृष्टि के, पत्य की प, सूच्यंगुल की 2 आदि होती है। इन संदृष्टियों से अर्थ, अंक और आकार रूप होती हैं, सूत्र या फार्मूला, समीकरण आदि बनाते हैं और इस प्रकार कर्मवाद का स्वरूप बड़ी गहराईयों तक आने के लिए उनका उपयोग करते हैं। यथा - { Logr) अं = प गुणित प...... पल्य के अर्द्धच्छेद बार जिसे आज के आधुनिक रूप में हम F = (P) = रूप में लिख सकते हैं। यहाँ (Log,P) घात के रूप में है। यानी सूच्यंगुल के प्रदेशों की संख्या पल्य के समयों के द्वारा निरूपित की गई है - यह उपमा मान का प्रारम्भ मात्र है।
कर्म के ऐसे गणितीय विज्ञान को निर्मित करने हेतु या श्रुत के सूत्रों को लिपिबद्ध करने हेतु दीक्षित मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त (प्रभाचन्दाचार्य) ने अपने परम गुरु आचार्य भद्रबाहु के सानिध्य में ब्राह्मी, सुन्दरी लिपियों या घनाक्षरी, होनाक्षरी विद्याओं या लिपियों को भाषा व गणित रूप कर्म सिद्धान्त को देने के लिये बारह वर्ष तक उल्लेखनीय प्रयास किये होगे । अशोक को अपने पितामह से जब इस लिपि की प्राप्ति हुई तो भारत में प्रथम बार, सिन्धु हडप्पा की सभ्यता के बाद, शिलालेख बनना प्रारम्भ हुआ होगा। इसी समय से भारत के श्रुति, स्मृति रूप ज्ञान लिपिबद्ध होना प्रारम्भ हुए। इस प्रकार ब्राह्मी लिपि के आविष्कार की आवश्यकता का इतिहास भारत में इस कर्मवाद के स्वरूप को यह रूप देने हेतु सुन्दरी लिपि से भी सम्बन्धित है। भाषा बॉए से दाहिनी ओर तथा गणित दाहिनी से बॉए ओर लिखी जाने का संकेत किवदंतियों द्वारा प्रकट किया जाने लगा।
___ एक और महत्त्वपूर्ण खोज शून्य को दसार्हा पद्धति में प्रयोग किये जाने सम्बन्धी हैं । उमास्वामी के तत्वार्थसूत्र रचने के पूर्व कुन्दकुन्दाचार्य षट्खण्डागम के प्रथम कुछ अध्यायों पर परिकर्म नामक गणित से ओतप्रोत टीका लिख चुके थे जो अब अनुपलब्ध हैं। न केवल वीरसेनाचार्य वरन् नेमिचन्द्राचार्य ने इसका उल्लेख किया है। तिलोयपण्णत्ती में बड़ीबडी करणानुयोग या द्रव्यानुयोग सम्बन्धी बड़ी संख्याएँ दसाह पद्धति में लिखी मिलती है। हो सकता है कि इस पद्धति का उपयोग या आविष्कार कुन्दकुन्दाचार्य ने किया हो, क्योंकि उनका महत्त्व तथा गणितीय प्रतिभा से प्रभावित अनुयायियों ने यह कहा है -
मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं मौतमो गणी ।
मंगल कुन्दकुन्दाचो, जैनधर्मोऽस्तु मंगलं ॥ उनका नाम सीधे गौतम गणधर के बाद अवतरित होना एक विलक्षणता है । महाबंध में शून्य का उपयोग रिक्त स्थान की पूर्ति के लिए किया गया है, जो एक संकेत देता है कि 9 के बाद के रिक्तस्थान शून्य द्वारा भरा जाये और 10 से यह कार्य प्रारम्भ हुआ होगा। उमास्वामी ने भी दस मध्यायों में तत्त्वार्थसूत्र को सम्पन्न किया। जो भी सामग्रीकर्म सिद्धान्त सम्बन्धी दिगम्बर जैन सम्प्रदाय में सुरक्षित रखी गयी होगी, उसी की भूमिका रूप, सार रूप, दिग्दर्शिनी रूप यह तत्त्वार्थसूत्र कीरचना हुई होगी, जिसमें कर्म बन्ध, संवर, निर्जरा आदि तथा कर्म की दस अवस्थाएँ साररूप में वर्णित की मयी होगी।