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पर्यावरण संरक्षण में सतत् रूप से समृद्ध तीर्थकर चिह्न एवं तीर्थंकर वृक्ष भारतीय संस्कृति में पूरी तरह से रचपच कर भारतीय जीवन पद्धति के अंग बन गए हैं। भारतवर्ष सघन वन तथा वन्य प्राणियों की प्रचुरता के लिए विख्यात रहा है। तीर्थंकरों ने अपने हों और वृक्षों के माध्यम से प्रकृति से अपना जीवत सम्पर्क बनाये रखा है। आज आवश्यकता है कि इस जीवन्त इतिहास को विश्व के समक्ष पुनः उद्घाटित किया जाए।
तीर्थंकर चिह्न समूह और तीर्थंकर वृक्ष समूह अतीत, वर्तमान तथा भविष्य के पर्यावरण की अनुभूति का प्रवाहीस्रोत है । चिह्नों और वृक्षों की यह चौबीसी प्रकृति, वनस्पति, पशु एवं पक्षी जगत् की महत्त्वपूर्ण अभयवाटिका है। इस अभयवाटिका से शान्ति का शाश्वत निर्झर प्रवाहित हो रहा है।
मनुष्य की सामान्य इच्छाओं की पूर्ति प्रकृति द्वारा बिना किसी कठिनाई के पूरी की जा सकती है, किन्तु जब इच्छा बहुगुणित होकर कलुषित हो जाती है, तब उसे पूरी करना प्रकृति के लिए कठिन हो जाता है। मनुष्य की यह बहुगुणित इच्छा ही प्राकृतिक संकटों की जननी है। इसी कलुषित एव बहुगुणित इच्छा की तुष्टि के फलस्वरूप पर्यावरण तहस-नहस हो जाता है । वायु, जल, ध्वनि एवं दृश्य प्रदूषित हो जाते हैं। जैसे-जैसे व्यक्ति की इच्छा बहुगुणित और कलुषित होती जाती है, उसकी संग्रह की प्रवृत्ति बढ़ती जाती है। उसका मन, चित्त, धबलता के स्थान पर कालिमा ग्रहण कर लेता है। आइये, हम कालिमा के पथ को छोड़कर धवलता के पथ पर अग्रसर हों और अपने पर्यावरण का संरक्षण एवं सवर्द्धन करें ।
बहे आँसुओं की धार
दिनांक २-१२-०४ स्थान सरस्वती भवन
पूज्य मुनिश्री का विदाई समारोह । सरस्वती भवन खचाखच भरा हुआ था। सभी आँखें गमगीन थी। एक-एक कर वक्ताओं को आमन्त्रित किया जा रहा था। डॉ. लालताप्रसाद खरे पहले वाक्य के साथ ही भावविह्वल हो गये। श्री पुष्पेन्द्रसिंह ने अटकते - अटकते अपनी भावांजलि दी। निर्मल जी ने मुनिश्री की जय बुलाई और इसके बाद उनका कंठ रुद्ध हो गया। चुपचाप मुनि श्री को नमोऽस्तु कर अपने स्थान पर बैठ गये ।
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