SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 237
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपयोग का नाट करने से सम्बन्धित सामाजिक एवं धार्मिक नियम स्थापित किये हैं, जिससे प्रकृति के इन उपहारों का आदर हो सके और पर्यावरण प्रदूषित न हों।" जैनसाधु अपने जीवन में इको-जैनिज्म एवं एप्लाइड जैनिज्म के सिद्धान्तों का समावेश एवं अभिव्यक्तिकरण करते हैं। वे अपने साथ सिर्फ काष्ठ निर्मित कमण्डलु और मोरपंख से बनी पिच्छी रखते हैं। ये दोनों उपकरण पर्यावरण संरक्षण एवं आत्मोन्नति के प्रतीक हैं। ये ऐसी सामग्री से निर्मित हैं, जो स्वयमेव जीवों के द्वारा छोड़ी गई है। साधुजन कमण्डलु के जल का दैनिक आवश्यकता हेतु बड़ी मितव्ययता से उपयोग करते हैं । दैनिक क्रियाओं के दौरान पिच्छी के द्वारा वे सूक्ष्म जीवों की प्राणरक्षा का प्रयास करते हैं। इस तरह मितव्ययता और प्राणी रक्षा का संदेश उनके जीवन से अनायास ही प्रचारित होता रहता है। जैन मुनि पर्यावरण के श्रेष्ठ संरक्षक हैं। वे हमेशा शिक्षा देते हैं कि हमें स्वच्छ पर्यावरण में रहना चाहिए, छना हुआ एव स्वस्थ्यवर्द्धक जल ग्रहण करना चाहिए, प्रदूषण मुक्त वायु का सेवन करना चाहिए, प्राकृतिक, स्वच्छ, शक्तिवर्द्धक एवं सात्त्विक भोजन लेना चाहिए । सशोधित आहार, तुरताहार या बासी भोजन, बिस्कुट ब्रेड डिब्बा बंद एवं संरक्षित भोज्य सामग्री प्रयोग नहीं करने की सलाह भी वे देते हैं। वे विविध रसायनों से संरक्षित करके दूर-दूर से आने वाले फलों की अपेक्षा स्थानीय ताजे एवं सस्ते फल एवं सब्जियों को ग्रहण करने के पक्षधर हैं। यदि हम इन शिक्षाओं एवं निर्देशों का नियमपूर्वक अनुसरण करें तो चिकित्सकों एवं औषधियों का प्रयोग सीमित हो सकता है। हम स्वयं अपेक्षाकृत ज्यादा स्वस्थ रहकर पर्यावरण को भी स्वस्थ बना सकते हैं। प्राकृतिक संरक्षण में जैन सस्कृति की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। हम अपने सांस्कृतिक आचार-विचार का अनुसरण एवं अभ्यास कर प्रकृति का सरक्षण करें। हमें अपने विकास का ऐसा ढाचा तैयार करना चाहिए जो कि पर्यावरण एव सास्कृतिक आधार को दृढ़ता प्रदान करे । आज न केवल हमारी सस्कृति या राष्ट्र वरन् हमारा समूचा ग्रह (पृथ्वी) भी ऐसे खतरे में है जैसा पहले कभी नहीं था। मानव जाति पर्यावरण को इतने व्यापक पैमाने पर नष्ट कर रही है कि स्वय प्रकृति भी अकेले इस ह्रास की क्षतिपूर्ति नहीं कर सकती। इससे पहले कि बहुत देर हो जाए हमें पर्यावरण की इस सबसे बड़ी चुनौती को जिससे कि हमारा और हमारी पृथ्वी का अस्तित्व जुड़ा है, स्वीकारना होगा । हमें स्वयं एक श्रेष्ठ पर्यावरण सरक्षक बनना होगा। चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमाओ पर अंकित चिह्न प्रकृति एवं पर्यावरण संरक्षण के अर्थ एव संदेश के संवाहक हैं। ये चिह्न सम्बन्धित तीर्थकर के जीवनवृत्त एव उनकी समकालीन प्रवृत्ति पर आधारित हैं। जैन तीर्थकरों का प्राकृतिक सम्पदा एवं वन्य प्राणियों के संरक्षण में महत्त्वपूर्ण योगदान है। तीर्थंकर यह जानते थे कि मानव प्रकृति पर निर्भर है, अतएव उन्होने प्रकृति, वन्य पशु एवं वनस्पति जगत् के प्रतिनिधि के रूप में महत्त्वपूर्ण विभिन्न प्रतीक चिह स्वीकार किए 1 24 तीर्थंकरों के 24 चिह्नों में से प्राप्नी-जगत् से 13 चिह्न हैं। प्राणी जगत के मेला, हाथी, घोड़ा, बन्दर, हिरण एव बकरा इत्यादि मनुष्य जगत् के लिए सदैव उपयोगी एवं सहयोगी रहे हैं। चकवा पक्षोसमूह का प्रतिनिधि है । जल में रहने वाले मगर, मछली, कछुआ एवं शंख का जलशुद्धि में महत्त्वपूर्ण योगदान है । ये जीव जगत् के लिए वरदान स्वरूप रहे हैं। स्वस्तिक एवं कलश मांगलिक हैं, अत: क्षेमंकर हैं । वदण्ड न्याय, वीरता एवं शौर्य का प्रतीक है । प्रकृति का महत्त्वपूर्ण घटक चन्द्रमा शीतलता एवं प्रसन्नता का प्रदायक है। कल्पवृक्ष वनस्पति जगत का प्रतीक है। लाल एवं नीलकमल पुष्प जगत् के सुमधुर एवं सुरभित प्रतिनिधि हैं। पुष्प अपनी प्राकृतिक सुन्दरता एवं सुकुमारता से शान्ति और प्रेम का संदेश प्रसारित करते रहे हैं।
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy