SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 236
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -180/ तत्कार्यसूत्र-निक पर्यावरण संरक्षण में जैन सिद्धान्तों की भूमिका सुरेश जैन, आई. ए. एस. * पर्यावरण संरक्षण के लिए अन्तर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय स्तर पर किया जा रहे अनेक सफल प्रयत्नों के बाबजूद भी हमारी पृथ्वी का पर्यावरण असंतुलित और वातावरण प्रदूषित हो रहा है। पर्यावरण संरक्षण में धार्मिक, आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक परम्पराओं का अत्यधिक योगदान है, अतः वैज्ञानिक कृत्यों के साथ-साथ आध्यात्मिक और सांस्कृतिक आधार पर पर्यावरण संबंधी सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार एवं विवेकपूर्ण प्राचीन मान्यताओं को पुनर्जीवित करना आवश्यक है 1 जैनधर्म ने पर्यावरण को अत्यधिक महत्त्व दिया है। प्रथम जैन तीर्थकर भगवान ऋभषदेव ने प्राचीन भारत में पर्यावरण संरक्षण और जैविक संतुलन बनाए रखने के लिए सशक्त सिद्धान्तों की स्थापना की थी, जो आज भी उपयोगी और प्रभावी है। हमें जैन परम्पराओं में निहित मूलभूत पर्यावरण प्रतिमानों को प्रचलित करना चाहिए। जैनधर्म हमें इस पृथ्वी के छोटे से छोटे प्राणी, वनस्पति और यहाँ तक कि सूक्ष्म जीवाणुओं (माइक्रोब्स) की रक्षा और सम्मान करने की प्रेरणा देता है, जो पर्यावरण संरक्षण के लिए अत्यन्त उपयोगी है। जैनधर्म समाज के प्रत्येक व्यक्ति को यह महत्त्वपूर्ण उपदेश देता है कि वह सम्पूर्ण मानव जाति एवं सृष्टि के समस्त जीवों की दीर्घायु की मंगलकामना प्रतिदिन नियमित रूप से करे । वह परमपिता परमात्मा की साक्षी में यह भावना भाये कि वर्षा समय पर और पर्याप्त हो, बाढ या सूखा न हो, कोई महामारी न फैले एवं समस्त प्रशासनिक अधिकारीगण अपने कर्तव्यों का पालन सच्चाई एवं ईमानदारी से करें । धर्माचार्यों ने कहा है कि प्रत्येक उत्तरदायी जैन परिवार निम्नांकित नियमों का कठोरता पूर्वक और नियमित रूप से पालन करे - 1. कोई भी अपने गन्दे वस्त्र किसी भी प्रवाहित पानी में न धोये ताकि उसमें रहने वाले सूक्ष्म जीवों की सुरक्षा हो सके। 2. कोई भी बगैर छना / अशुद्ध जल न पिये ताकि शरीर रोगमुक्त रह सके और आसपास का वातावरण दूषित होने से बच जाए। संसार के वैज्ञानिक मानते हैं कि जैनधर्म में जो पानी छानने की प्रथा प्रचलित है वह उनके स्वस्थ शरीर के लिए उपयोगी है। यह प्रथा श्रेष्ठ स्वास्थ्य एवं आधुनिक सभ्यता की प्रतीक है। 3. किसी भी जल स्रोत से पानी निकालने के पश्चात् शेष बचे बगैर छने पानी (जीवानी) को उसी जलस्रोत तक पहुँचा दिया जाय ताकि सूक्ष्म जीवाणु अपने प्राकृतिक जैविक संतुलन को बनाए रखकर शान्तिपूर्वक जीवित रह सकें । 4. कोई भी जल की एक बूंद व्यर्थ नष्ट न करे, पेड़-पौधों से व्यर्थ ही फूल या पते न तोड़े, विद्युत या किसी भी ऊर्जा की एक यूनिट भी व्यर्थ व्यय न होने दें। इस तरह जैनधर्म ने पर्यावरण के मूल घटक, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति के दुरुपयोग, अत्यधिक * 30, निशात कालोनी, भोपाल, (0755) 2555533
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy