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________________ उक्त जीवनमूल्यों के मूल में वैयक्तिक सुख की प्राप्ति कराना है, ऐसे वैयक्तिक सुखों को जिन्हें समाज और राज्य (विधि) द्वारा मान्यता प्राप्त होती है। जिनके मूल में समष्टि का सुख निहित नहीं है वे वैयक्तिक मूल्य कभी जीवन मूल्य नहीं बन सकता जिनका जीवन और व्यवहार समानारामान्य नहीं होता है व समान में पेक्षा, निस्किार पाते हैं और यह स्थिति पसन की पराकाष्ठा है। किसी ने लिखा है कि - सरकार की नजर में निरवाना सबसे बड़ा पतन है। सरकर तो सभी मरते। पर यह तो जीवित मरण है। आज का मानव का लक्ष्य मात्र जीना हो गया है और परिणाम सामने है कि वह जी नहीं पा रहा है बल्कि उसकी मौत भी ब्लडप्रेशर, मधुमेह, बेनहैमरेज, हार्डअटेक, एड्स, कैंसर आदि के बीच होने लगी है, जिनका उद्देश्य था खाओपीओ, मौज करो और रहो होटलों में, मरो अस्पतालों में । आज यह मजाक में कहा गया कथन जिन्दगी की हकीकत बन गया है। ऐसा इसलिए हुआ कि हमने सब कलायें सीखी किन्तु जीने की कला नहीं सीखी। जीने की कला तो यह है कि हम इस प्रकार जीवन जियें कि मृत्यु के समय कष्ट न हो । आचार्य उमास्वामी जीने की कला को जानते थे इसलिए उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र के माध्यम से प्रेरणा दी कि ऐसे कार्य करो जिससे पाप से बच सको। यदि पाप से बचे तो कानून से भी रक्षा होगी और समाज में भी प्रतिष्ठा मिलेगी, तुम्हारा आत्मगौरव बढ़ेगा और मरण के समय भी कष्ट नहीं होगा। मेरा तो मानना है कि आचार्य उमास्वामी ने जो सबसे बड़ा जीवनमूल्य दिया (बताया) वह है - "मारणान्तिकीं सल्लेबना जोषिता" अर्थात मरण के समय प्रीतिपूर्वक सल्लेखना ग्रहण करना चाहिए। सन्देश स्पष्ट है कि जियो तो ऐसे जियो कि शान्ति से मर सको और इसके लिए सबसे बड़ा मूलमंत्र है कि जियो और बौने दो। हमारी प्रवृत्तियाँ त्यागोन्मुख रहे तो जीवन भी तनावरहित रहेगा। औरों को हंसते देखो मनुसो और सब पामो । अपने सुखको विस्तृत कर सोमबको सुखी बनाओ। हम सब ऋणी है आचार्य उमास्वामी के जिन्होंने तस्वार्थसूत्र के रूप मे हमे एक ग्रन्थ ही नहीं दिया बल्कि ग्रन्थि विमोचन का सम्यक् मार्ग भी बताया। आज हम उनकी बातो (सूत्रों) पर विश्वास कर पा रहे हैं तो मात्र इसलिए क्योंकि उनका जीवन जीवनमूल्यो से बँधा था। हम सब भी जीवनमूल्यो को अपने जीवन मे प्रतिष्ठित करें ताकि हमारा जीवन भी मूल्यवान बन सके और हम कह सके कि हमारा भी कुछ मूल्य है। २. तत्वार्यसूत्र / १. तत्वार्थसूच,7/22
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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