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________________ 178/सस्वार्थम-निया अधिकाधिक नाविक के संचय में ही सुख मानने लगे हैं। आचार्य उमास्वामी ने "मूर्ण परिवहः" अर्थात किसी भी परवस्तु में ममत्वभाव को परिग्रह माना है और इससे विरति को व्रत' कहा है। सद्गृहस्थ को सुखी जीवन के लिए अपने क्षेत्र, वास्तु, चाँदी, स्वर्ण, धन, धान्य, दासी, दास आदि का परिमाण निश्चित कर लेना चाहिए। जब परिग्रह का संचय एक ही जगह हो जाता है तो समाज में विषमता बढ़ती है, मारकाट की स्थिति बन जाती है अत: परिग्रह परिमाण ही उचित है। पुरुषार्थसिद्धधुपाय में आचार्य अमृतचन्द्र ने धनादिक को बाह्य प्राण मानते हए कहा है कि यदि कोई उसका हरण करता है तो वह हिंसा है - अर्वा नाम य एते प्राणा एते बहिश्चराः पुंसाम् । रति स तस्य प्राणान् यो बस्य जनो हरपान् ।' अर्थात् जितने भी धन-धान्य आदि पदार्थ हैं ये पुरुषों के बाह्य प्राण हैं जो पुरुष जिसके धन-धान्य आदि पदार्थों को हरण करता है वह उसके प्राणों का नाश करता है, इससे हिंसा है। अतः परिग्रह का परिमाण करते हुए अन्य के परिग्रह को हड़पने का भी विचार नहीं करना चाहिए ताकि अतिपरिग्रह से भी बचें और चोरी का भी दोष न लगे। स्ववारसन्तोष __ मैथुन को कुशील कहते हैं - 'मैथुनमब्रह्म' और इससे बचना ब्रह्मचर्यव्रत है ।' गृहस्थ पूर्ण ब्रह्मचर्यव्रत का पालन तो नहीं कर सकता है अत: उसे स्वदारसन्तोष व्रत का पालन करना चाहिए। विवाह संस्था का जन्म इसीलिए हुआ कि वह काम सम्बन्धी मैथुन को वैधानिक स्थिति तथा समाज में मर्यादापूर्ण आचरण बना सके । यदि कोई अपनी विवाहित स्त्री या पुरुष के अतिरिक्त किसी अन्य से काम-सम्बन्ध रखता है तो उसे व्यभिचार कहा जाता है। जिसे न समाज आदर देता है और न कानून, अत: इससे बचना चाहिए। अधिक स्त्रियों या पुरुषों से परस्पर कामसम्बन्ध 'एड्स' जैसी भयंकर बीमारी का कारण बनते हैं अत: स्वदारसन्तोष भाव को अपनाना चाहिए। विवाह के पूर्व ही वर-कन्या से स्वदारसन्तोष और सम्पत्तिसन्तोष व्रत दिलाया जाता है। आचार्य उमास्वामी के अनुसार - 'अनुग्रहाचं स्वस्यातिसर्गो दानम्' अर्थात् पर के अनुग्रह (उपकार) के लिए अपनी वस्तु का देना दान है। दान चार प्रकार का माना गया है - औषधिदान, ज्ञानदान, आहारदान और अभयदान । इन चारों दानों के देने से एक ओर जहाँ परिग्रह से मोह छूटता है वहीं दूसरों को जीवनयापन में मदद मिलती है। अत: दान से स्व और पर दोनों का उपकार होता है। दान की भावना से ही अतिथिसत्कार या अतिथिसंविभाग की स्थिति बन पाती है। जिनके घरों में अतिथियों का आदर-सत्कार नहीं किया जाता वे घर श्मशान के समान कहे गये हैं। १.तत्त्वार्थसूत्र.1/1 २. वही,1/17 ३. वही,1/1 ४. पुरुषार्थसिद्धपुपाय : भाचार्य अमृतचन्द्र, 103 ५. सत्त्वार्थसूत्र,7/16 ७.वही,1/8
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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