SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 233
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इसनिणय आहसा ......विधि और नैमिनीखोनों यचंपिक नहीं है फिर भी नैतिकता से एकदम प्रतिव्यरित होता मारिणामों को उद्भूत करना होगा अपने जीवन का परिणाम सामान्य शब्दों में एक कर्तव्य पर इसका बलियामाएक सहमतम उच्च कर्तबान शुद्ध एक ऐसादृष्टान्त है जिनमें जीवित रहना नहीं, वरन् जीवन का बलिदान कर्त्तव्य माना जाता है। मत पक्षकी पविहीन को पुष्टि होती है। आचार्य उमास्क वामी ती स्वय आहसा महावत के पालक थे अत: उन्होंने हिंसा से विरति अर्थात् अहिंसा को व्रत माना। यदि जीवन से अहिंसा चली जाये तो माँ अपने बच्चे को दूध क्यों पिलाये, पिकापालन क्यों करे ? ' ___गार्हस्थिक हिसा प्रमुख रूप से पारे प्रकार की मानी गयी है। आरंभीहिंसा, उद्योगीहिंसा, 3. विरोधीहिंसा और 4. संकल्पीहिसा। जिसमें से यह अपेक्षा की जाती है कि कम से कम वह संकल्पी हिंसा का तो त्याग करे ही। .. ..... ... .. .. ... ... ::: ____ आचार्य उमास्वामी के अनुसार - 'असदभिधानमनृतम्' अर्थात् प्रमाद के योग से जीवों को दुःखदायक अथवा मिथ्यारूप वचन बोलना असत्य है और इसमें विरति होना सत्यव्रत है। सभी गुणसम्पदायें सत्य वक्ता में प्रतिष्ठित होती हैं। झूठे का बन्धुजन भी तिरस्कार करते हैं। उसके कोई मित्र नहीं होता। जिह्वाच्छेदन, सर्वस्वहरण आदि दण्ड उसे भुगतने पड़ते हैं। जो वचन पीडाकारी हैं वे भले ही सत्य हों, किन्तु असत्य ही हैं। मिथ्याभाषी का कोई विश्वास नहीं करती ... जिनके सम्बन्ध में झूठ बोलता है वे भी उसके बैरी हो जाते हैं इसलिए उनसे भी अनेक आपतियाँ हैं अत: असत्य बोलने से विरक्ति होना ही कल्याणकारी है। नोति भी है... . . . .. ।', ' . ", ... • " , "प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुम्बन्ति जन्तवः । ..." तस्मात्तदेव बक्तब्य बचने का दरिद्रता ॥ अचौर्य तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार 'मदत्तावानं स्तेयम्' अर्थात् बिना दी हुई वस्तु लेना चोरी है तथा इससे विरति अचौर्य है। अचौर्य को जीवन मूल्य के रूप में अपनाने वाला चोर को चोरी करने की प्रेरणा नहीं देता, न प्रेरणा करवाता है, न चौर कर्म या चोर की सराहना करता है, किसी चोर से चोरी का माल नहीं खरीदता, राज्य के नियमों के विरुद्ध कर आदि की चोरी नहीं करता, तौलने या नापने के मान (बोट), तराजू आदि कम-अधिक नहीं रखता, अधिक मूल्य वाली वस्तु में कम मूल्य वाली वस्तुएं मिलाकर नहीं देता (बेचता)। इस प्रकार वह अचौर्यभाव को एक व्रत के रूप में अपनाता है। परिग्रहपरिमाण परिग्रहपरिमाण भी जीवनमूल्य ही है किन्तु जबसे पुण्यफल के रूप में परिग्रह को मान्यता मिली है तब से लोग १. भारतीय दण्डसंहिता : मुरलीधर बतुर्वेदी, अध्याय 4, पृ. 140-141 .:: . . . . . . . . . २. तस्वार्थसूत्र, 1/1 ३. वही,1/14 ४. वही,1/1 ५. तत्त्वार्थवार्तिक, 9/6/27 ६. वही,7/14/5 . . ७. वही,1/9/2 ८. तत्त्वार्थसूत्र, 1/13
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy