SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 232
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ₹176/निय अर्थदण्डविरति - · तत्वार्थ सूत्रकार आचार्य उमास्वामी का दृष्टिकोण एवं लक्ष्यस्पष्ट है वे प्रत्येक मानव को प्रसारण का पालन करवाते हुए मोक्ष तक ले जाना चाहते हैं। उन्हें मानव की स्वतन्त्रता तो प्रिय है किन्तु स्वच्छन्दता नितान्त अस्वीकार्य है। वे मनुष्यों को अनर्थदण्ड से विरत करना चाहते हैं। तत्वार्थसूत्र के सातवे अध्याय के 21 वे सूत्र में वे अनर्थदण्डविरति पालन में सहायक बताते हैं। जिससे अपना कुछ लाभ या प्रयोजन तो सिद्ध न हो और व्यर्थ ही समय सत्य होता हो, ऐसे विचार एव कार्य को अनर्थदण्ड कहते हैं। इसके पाँच भेद्र है hot - अध्यान दूसरों का बुरा विचारमा । 2. पापोपदेश - दूसरों को पाप कार्य करने का उपदेश देना । 1 3. प्रमादचर्या - बिना प्रयोजन यत्र-तत्र घूमना, पृथ्वी खोदना, पानी फैलाना, घास, तिनके आदि तोड़ना । 4. हिंसादान - तलवार, बन्दूक, भाला आदि हिंसक उपकरणों का देना । 5. दुःश्रुति - हिंसा और राम आदि बरतने वाली कथाओ का सुनना, पढ़ना, देखना आदि । सबसे पाप होता है अतः जीवन में जिससे पाप न हो, किसी को दुःख न पहुँचे, ऐसे विचारशील मनुष्य को इन अर्थदण्डों से विरत रहना चाहिए। आचार्य उमास्वामी ने अनर्थदण्डव्रत के अतिचार 'कन्दर्पकीत्कुच्यमौसर्यासमीक्ष्याधिकरणोपभोगपरिभोगानर्थक्यानि के माध्यम से राग की अधिकता होने से हास्य के साथ अशिष्ट वचन बोलना ( कन्दर्प), हास्य और अशिष्ट वचन के साथ शरीर से भी कुचेष्टा करना (कौत्कुच्य), धृष्टतापूर्वक बहुत बकवास करना (मौखर्य), बिना विचारे अधिक प्रवृत्ति करना (असमीक्ष्याधिकरण ), जितने उपभोग और परिभोग मे अपना काम चल सकता हैं, उससे अधिक सग्रह करना ( उपभोगपरिभोगनार्थक्य) को प्रकारान्तर से त्याग की प्रेरणा दी है। इनका उल्लघन करने वालों के लिए महाभारत का उदाहरण पर्याप्त है जहाँ कटुवचन के कारण इतनी बड़ी हिंसा हुई। हम पत्र-पत्रिकाओं में प्रतिदिन ऐसे उदाहरण पढ़ते है जिनमे हॅसी-मजाक, अशिष्ट व्यवहार आदि के कारण व्यक्तियो को अपने प्राणो से हाथ धोने पड़ते हैं। अतः सद्गृहस्थ के लिए अनर्थदण्डों से बचना चाहिए। अहिंसा - top "" १. स्वार्थसून 7/21 १. नही, 7/32 अहिंसा धर्म का प्राण तत्त्व है जिस पर विश्वास के फलस्वरूप यह ससार सुरक्षित है। जहाँ जैनदर्शन एव आचारव्यवस्था प्राणी मात्र के रक्षण पर बल देती है वहीं अन्य धर्म मानव सरक्षण पर अधिक बल देते हैं यहाँ तक कि मानवीय हितों के आगे वे अन्य प्राणियो की भी बलि ले लेते है। महाभारत मे आया है कि धर्म तो वही है जो अहिंसा से युक्त है. अहिंसार्थाय भूतानां धर्मप्रवचनं कृतम् । यः स्वाद् हिंसबा युक्तः स धर्म इति निश्चयः ॥ I " अर्थात् अहिंसा के लिये ही प्राणियों को धर्म का प्रवचन किया है जो अहिंसा से युक्त है वही निश्चय से धर्म है । 102
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy