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अर्थ की इस मिया ने हमारा पतन निर्लज्जता की सीमा तक कर दिया है 100
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यह कटु सत्य है कि अर्थ की आँखें परमार्थ को देख नहीं स
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अर्थ की लिप्सा ने, बड़ों बड़ों को? निर्लज्ज बनाया है ।'
पं. जवाहरलाल ने कहा था कि कोई भी राष्ट्र महान नहीं हो सकता है, जिसके लोग विचार या कार्य के संकीर्ण हो ।' यह वास्तविकता है, कि 'परस्परोपग्रह' के बिना जीवन निर्वाह नहीं हो सकता, भले ही उपकृत होने वाले इसे स्वीकार न करें। स्वार्थी का संसार नहीं होता, वह तो उसके विनाश का ही कृत्य है। 'कामायनी' में श्रीजयशंकरप्रसादकहते हैं कि
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३. तत्त्वार्यसूत्र, 6/25
४. वही, 6/26
५. वही, 7/11
अपने में सब कुछ पर कैसे व्यक्ति विकास करेगा, यह एकान्त स्वार्थ भीषण है अपना नाश करेगा ॥"
परनिन्दा नहीं, आत्मप्रशंसा नहीं
तत्त्वार्थसूत्र में नीचगोत्र के आसव के कारणों में बताया है कि परात्मनिवासे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च. नीचैस्म' अर्थात् दूसरे की निंदा और अपनी प्रशंसा, दूसरे के विद्यमान गुणों को ढँकना और अपने अविद्यमान गुणों का प्रकाश करना नीचगोत्र कर्म आस्रव के कारण हैं। उच्च व्यक्तित्व बनाने के लिए लघुता आना आवश्यक है. 1. गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर कहते थे कि - "मैं जिसकी प्रशंसा नहीं कर सकता उसकी निंदा करने में मुझे लाज आती है।12 अत: पर निंदा और आत्मप्रशंसा से बचना चाहिए और यदि कोई हमारी निंदा करता हो तो हमें उसका उपकार मानना चाहिए कि वह हमें सजग रख रहा है। निंदक को तो निकट रखने की बात की गयी है..
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निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी हवाय ।
बिन पानी साबुन बिना निर्मल करे सुभाय ||
१. मूकमाटी, पृ. 192
२. कामायनी, जयशंकरप्रसाद, पृ. 82
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उच्च गोत्र पाने के लिए दूसरे की प्रशंसा, अपनी निंदा करना, दूसरे के अच्छे गुणों को प्रकट करना और अ असमीचीन गुणों को ढकना, अपने समीचीन गुणों को भी प्रकट न करना माना है।' प्रकारान्तर से विनय और दुर्भावहीनता जीवन के हित के लिए आवश्यक है।
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सम्यग्दर्शन की 4 भावनायें मानी गयी हैं । तत्त्वार्थसूत्र में व्रत की रक्षा के लिए इन्हें जरूरी माना है. "मैत्रीप्रमोद कारुण्यमाध्यस्थानि च सत्त्व-गुणाधिकक्लिश्यमानाऽविनयेषु"" अर्थात् प्राणीमात्र के प्रति मैत्रीभाव,
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