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174/ तत्वार्थ-निक
अधिकगुणा वालों के प्रति प्रमोद (हर्ष, प्रसन्नता), दुःखी जीवों के प्रति करुणा और हठग्राही, दुराग्रही, पापी जनों के प्रति माध्यस्थभाव रखना चाहिए। आचार्य अमितगति ने भी लिखा है -
सत्येषु मैत्रीं गुणिषु प्रमोद, क्लिहेषु जीवेषु कृपा परत्वम् । माध्यस्थभाव विपरीतवृत्ती, सदा ममात्मा विदधातु देव ! ॥"
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'सर्वार्थसिद्धि' में पूज्यपाद स्वामी ने 'परेषां दुःखानुत्पत्त्यभिलाषी मैत्री' लिखकर दूसरों को दुःख न हो ऐसी अभिलाषा रखने को मैत्री माना है। भट्ट अकलंकदेव ने 'तत्त्वार्यवार्तिक' में मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदन, हर प्रकार से दूसरे को दुःख न होने देने की अभिलाषा को मैत्री कहा है।
मैत्री भाव सह अस्तित्व का सूचक है। संसार में ऐसा कौन प्राणी है जो जीना नहीं चाहता हो, तब हम क्यों न छोटे-बड़े का भेद भुलाकर मित्रता के अटूट बन्धन में बँधते हुए स्व-परहित की कामना करें। हरिवंशराय बच्चन ने ठीक ही लिखा है
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सरोपा आपका किसी से छोटा भी हो सकता है। इन्सान आपका किसी से भी छोटा नहीं ॥
हर समान की माँग रहती है कि सब समान हों, जो विधि के विधानानुसार भले ही संभव नहीं हो, किन्तु मैत्री इसे संभव बना सकती है।
प्रमोद -
गुणीजनों को देखकर चित्त का प्रसन्न होना प्रमोदभाव है। मुख की प्रसन्नता, नेत्र का आह्लाद, रोमाञ्च, स्तुति, सद्गुणकीर्तन आदि के द्वारा प्रकट होने वाली अन्तरंग की भक्ति और राग प्रमोद है। व्यक्ति को सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्राधिक गुणी जनों की वन्दना, स्तुति, सेवा आदि के द्वारा प्रमोद भावना भानी चाहिए।'
करुणा -
"बीनानुग्रहभावः कारुण्यम्" अर्थात् दीनों पर दयाभाव रखना कारुण्य है। शरीर और मानस दुःखों से पीडित दीन प्राणियों पर अनुग्रह रूप भाव कारुण्य है। मोहाभिभूत कुमति, कुश्रुत और विभंगज्ञानयुक्त विषय तृष्णा से जलने बाले हिताहित में विपरीत प्रवृत्ति करने वाले, विविध दुःखों से पीडित दीन, अनाथ, कृपण, बाल-वृद्ध आदि क्लिश्यमान जीवों में करुणाभाव रखना चाहिए।'
१. आचार्य अमितगति,
२. सर्वार्थसिद्धि, आचार्य पूज्यपाद, 7/11/683
३. तत्त्वार्थवार्तिक, 7/11/1
४. बच्चन रचनावली, (कटती प्रतिमाओं की आवाज ) 3 / 237
५. तत्वार्थवार्तिक, 7/11/1-4
६. वही, 7/11/5-7
७. वही, 7/11/3
८. वही, 7/11/5-8