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________________ 15. बडेभबळे योगियों को भी कषायों के सीन उदय से मन में अत्यन्त चंचलता होती है। फिर साधारण: पुरुषों की क्या सालिन्च की अस्थिरता और दुर्बलता नष्ट करने के लिए और धर्म में स्थिर रहने के लिए योग्य गुरु का सानिध्य आवश्यक है। विधिपूर्वक एकाग्रचित्त से धारण की हुई सल्लेखना का प्रत्यक्ष फल कषायों की मन्दता और परोक्ष फल पंचमगति अर्थात् मोक्ष है । आचार्य समन्तभद्र कहते हैं - . ...... PO , I ... पनि अमममम्युदयं निस्तीरं दुस्तरं सुखाम्बुनिधिम् ।. .. . निम्भिवति पीतधर्मा सर्वे दुःखैरनालीढ ॥ र. श्रा. 130 .. ! :: ... ...... अर्थात् समाधिमरण धारण कर जिन्होंने धर्मामृत पान करते हुए, आत्मा को पवित्र किया है वे स्वर्ग में अनुपम अभ्युदय के स्वामी बनकर अन्त में सम्पूर्ण दुःखों से रहित हो - जिसका कभी विनाश (अन्त) नहीं ऐसे अत्यन्त दुर्लभ मुक्ति स्वरूप सुखसागर के पान में निमग्न हो जाते हैं अर्थात् समाधिमरण द्वारा अर्जित धर्म के प्रसाद से स्वर्ग के साथ अन्त में अनुक्रम से मुक्ति भी प्राप्त हो जाती है। MAYS अत: प्रत्येक विचारशील गृहस्थ को जैनधर्म के अनुसार समाधिमरण की विधि और उमर्की महत्ता पर विचार कर .. . msrtime पुण्यलाभ उठाना चाहिए। ...! सल्लेखना नात्यात नहीं - देहत्याग की इस प्रक्रिया को नहीं समझ पाने के कारण कुछ लोग इसे आत्मघात कहते हैं, परन्तु सल्लेखना आत्मधात नहीं है। जैनधर्म में आत्मघात को पाप-हिंसा एवं आत्मा को अहितकारी कहा गया है। यह ठीक है कि आत्मघात और सल्लेखना, दोनों में प्राणों का विमोचन होता है, पर दोनों की मनोवृत्ति में महान् अन्तर है। आत्मघात जीवन के प्रति अत्यधिक निराशा एवं तीव्र मानसिक असन्तुलन की स्थिति में किया जाता है, जबकि सालेखला परम उत्साह से समभाव धारण करके की जाती है । आत्मघात कषायों से प्रेरित होकर किया जाता है, तो सल्लेखना का मूलाधार समता है। आत्मघाती को आत्मा की अविनश्वरता का भान नहीं होता, वह तो जीवन के बुझ जाने की तरह शरीर के विनाश को ही जीवन की मुक्ति समझता है, जबकि सल्लेखना का प्रमुख आधार आत्मा की अमरता को समझकर अपनी परलोक यात्रा को सुधारना है। सल्लेखना जीवन के अन्त समय में शरीर की अत्यधिक निर्बलता, अनुपयुक्तता, भारभूतता अथवा मरण के समय के किसी अन्य कारण के आने पर मृत्यु को अपरिहार्य मानकर की जाती है, जबकि आत्मघात जीवन के किसी भी क्षण किया जा सकता है। आत्मघाती परिणामों में दीनता, भीति और उदासी पायी जाती है, इसे सल्लेखना में परम उत्साह, निर्भीकता और वीरता का सद्भाव पाया जाता है । आत्मघात विकृत चित्तवृत्ति का परिणाम है तो सल्लेखना निर्विकार मानसिकता का फल है । आत्मधात में जहाँ मरने का लक्ष्य है, तो सल्लेखना का ध्येय मरण के योग्य परिस्थिति निर्मित होने पर अनेक सद्गुणों की रक्षा और अपने जीवन के निर्माण का है। एक का लक्ष्य अपने जीवन को बिगाड़ना, तो दूसरे का लक्ष्य जीवन को संवारना है। १. आचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि में एक उदाहरण से इसी बात को स्पष्ट करते हुए कहा है कि किसी गृहस्थ के घर में बहुमूल्य वस्तु रखी हो और कदाचित भीषणा अन्ति से घर जलने लगे, तो वह उसे येन-केन-प्रकारेगा बुझाने का प्रयास करता है। पर हरसम्भव प्रयास के बाद भी, यदि आग बेकाबू होकर बढ़ती ही जाती है, तो उस विषम परिस्थिति में वह चतुर व्यक्ति अपने मकान का ममत्व छोड़कर बहुमूल्य वस्तुओं को बचाने में लग जाता है। उस गृहस्थ को मकान का विध्वंसक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसने अपने और से रक्षा करने की पूरी कोशिश की, किन्तु जब
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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