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रक्षा असम्भव हो गयी तो एक कुशल व्यक्ति के नाते बहुमूल्य वस्तुओं का संरक्षण करना ही जाकर कर्तव्य बनता है। इसी प्रकार रोगादिकों से आक्रान्त होने पर एकदम से सल्लेखना नहीं ली जाती । साधक तो शरीर को अपनी साधना का विशेष साधन समझ यथासम्भव रोगादिकों का योग्य उपचार / प्रतीकार करता है, किन्तु, पूरी कोशिश करने पर भी जब रोग असाध्य दिखता है और निःप्रतीकार प्रतीत होता है, तब उस विषम परिस्थिति में मृत्यु को अवश्यम्भावी, जानकर अपने व्रतों की रक्षा में उद्यत होता हुआ, अपने संयम की रक्षा के लिए समभावपूर्वक मृत्युराज के स्वागत में तत्पर हो जाता
है ।
सल्लेखना को आत्मघात नहीं कहा जा सकता। यह तो देहोत्सर्ग की तर्कसंगत और वैज्ञानिक पद्धति है, जिससे अमरत्व की उपलब्धि होती है।
आचार्य शान्तिसागर : संबम से समाधि
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निर्विकल्प समाधि तथा सविकल्प समाधि..
इस प्रकार समाधि दो प्रकार की कही है।
गृहस्थ या कपड़ों में रहने वाले सविकल्प समाधि करेंगे। मुनि बिना निर्विकल्प समाधि सम्भव नहीं । .
और वस्त्र छोड़े बिना मुनि पद होता नहीं ।
भाइयो ! डरो मत! मुनि पद धारण करो ।
यथार्थ संयम हुए बिना निर्विकल्प समाधि नहीं होती। निर्विकल्प समाधि होने पर भी सम्यक्त्व होता है, ऐसा कुन्दकुन्द स्वामी ने समयसार में कहा हैआत्मानुभव के बिना सम्यक्त्व नहीं होता 4. -व्यवहार सम्यक्त्व को उपचार कहा है,
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यह यथार्थ सम्यक्त्व नहीं है।
'वह तो केवल साधन है ।
जैसे फल के लिए फूल कारणभूत है,
उसी प्रकार व्यवहार व्यवहारसम्यक्त्व कहलाता है।
यह यथार्थ सम्यक्त्व नहीं है।
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निर्विकल्प समाधि के होने पर होता है। निर्विकल्प समाधि कब होती है ?
"वह मुनि पद धारण करने होती है।
निर्विकल्प समाधि का प्रारम्भ कब होता है ? गुणस्थान से प्रारम्भ होता है
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